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________________ धर्म और समाज रखनेमें पापका भय दिखलाती और प्रायश्चित्त देती थी, उन्हीं धुरन्धर पंडितोकी सन्तानोंने नवीन शिक्षा लेकर अपने बड़ोंका सामना किया और जहाँ कोई मार्ग न मिला वहाँ ब्रह्मसमाज, देवसमाज, आर्यसमाजादि नये धर्मोकी स्थापना कर ली। एक तरफ शिक्षित गृहस्थोंमेंसे प्रजाके नवीन मानसको मार्ग दिखा सकनेवाला समर्थ वर्ग तैयार होने लगा और दूसरी तरफ साधु-संन्यासियोंमेंसे भी ऐसा वर्ग निकलने लगा जो पाश्चात्य शिक्षाको समझता था और उसको अपना लेने में ही प्रजाका सुन्दर भविष्य देखता था। स्वामी विवेकानन्द और रामतीर्थने नवीन-शिक्षाप्राप्त हिन्दुओंके मानसको पहचान लिया और उसे योग्य दिशामें सहानुभूतिपूर्वक ले जानेका प्रामाणिक और बुद्धि-सिद्ध प्रयत्न किया। परिणाम यह हुआ कि आज पुरानी रूढ़ियोंके कट्टरसे कट्टर समर्थक लाखों सनातनी पंडितोंके रहते हुए भी विशाल वैदिक समाजकी इस नवीन पीढ़ीके लिए शिक्षणमें या विचार-स्वातन्त्र्यमें कोई बंधन नहीं रह गया । यही कारण है कि जहाँ एक ओर दस हजार वर्ष पुराने वैदिक कालके पक्षपाती प्रखर पंडित मौजूद हैं वहीं विद्याकी प्रत्येक शाखामें सर्वथा नवीन ढंगसे पारंगत और खुल्लमखुल्ला पुराने समयके बंधनोंके विरोधी हजारों लाखों विद्वान् नजर आने लगे हैं । कोई भी सतातनी पंडित या शंकराचार्य, जगदीशचन्द्र बोस या सी० वी० रमणको इसीलिए नीचे गिरानेका प्रयत्न नहीं करता कि उन्होंने जो उनके पूर्वजोंने नहीं किया था वह किया है। कालिदास और मायके वंशज किसी संस्कृत-कविने टागोरके कवित्वके विरोधमें इसलिए रोष नहीं दिखाया कि उन्होंने वाल्मीकि और व्यासके सनातन मार्गसे भिन्न बिल्कुल नई दिशामें प्रस्थान किया है । गीताके भाष्यकार आचार्योंके पट्टधरोंने गाँधीजीको इसीलिए त्याज्य नहीं गिना कि उन्होंने पूर्वाचार्योंद्वारा फलित न की हुई अहिंसा गीतामेंसे फलित की है। अर्थात् हिन्दू समाजमें करोड़ों अति संकुचित, शंकाशील और डरपोकोंके होते हुए भी सारी दुनियाका ध्यान आकर्षित करनेवाले असाधारण लोग जन्मते आये हैं । इसका एक मात्र कारण यही है कि इस समाजमें नये मानसको पहचाननेवालों, उसका नेतृत्व करनेवालों और उसके साथ तन्मय होनेवालोंका कभी अभाव नहीं रहा। अब जरा जैन समाजकी ओर देखिए। उसमें कोई पचास वर्षसे, नवीन शिक्षाका संबार धीरे धीरे हुआ है । वह जैसे जैसे बढ़ता गया, वैसे वैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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