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________________ जो १९३८ के प्रारम्भमें ही क्रमशः छप कर तैयार हो गया। इस तरह इस छोटेसे मूल और वृत्ति ग्रन्यने भी करीब पौनेतीन वर्ष ले लिए । जब कोई छोटा बड़ा काम सम्भूयकारितासे खासकर अनेक व्यक्तियोंके द्वारा सिद्ध करना हो तब उस कार्यके विविध हिस्सोंका विभाग करके व्यक्तिबार बांट लेना जरूरी होता है। इस नियमके अनुसार प्रस्तुत संस्करणका कार्पविभाग हम लोगोंने कर लिया। जिसका परिज्ञान अनेक सम्भूयकारी व्यक्तियोको उपयोगी होगा। इस दृष्टिसे उस विभाजनका यहां संक्षेपमें वर्णन करना प्रस्तुत होगा। कार्यविभाजनका मूल सिद्धान्त यह है कि जो जिस अंशको अधिक सरलतासे, विशेष पूर्णतासे और विशेष सुचारु रूपसे करनेका अधिकारी हो उसे वह अंश मुख्यतया करनेको सौंपा जाय। दूसरा सिद्धान्त यह भी है कि समूह गत अन्य व्यक्कियाँ मी अपने-अपने अपरिचित अल्पपरिचित या अल्प अभ्यस्त अंशोंको भी दूसरे सहचारियोंके अनुभव व कौशलसे ठीक-ठीक सीख लें और अन्तमें सभी सब अंशोंको परिपूर्णतया सम्पादित करनेके अधिकारी हो जायँ । इन दो सिद्धान्तोंके आधार पर हम तीनोंने अपना-अपना कार्यप्रदेश मुख्यरूपसे स्थिर कर लिया। यों तो किसी एकका कोई ऐसा कार्य न था जिसे दूसरे देखते न हों। पर कार्यविभाग जवाबदेही और मुख्यताकी दृष्टिसे किया गया । मेरे जिम्मे मूल ग्रन्थकी पाठ शुद्धि तथा लिये गए पाठान्तरोंका शुद्धाशुद्धत्वविवेक-ये दो काम रहे। और संगृहीत अवतरणों के आधारसे तथा स्वानुभवसे नई वृत्ति लिखनेका काम भी मेरे जिम्मे रहा । टीका लिखनेमें उपयोगी होनेवाले तथा तुलनामें उपयोगी होनेवाले समग्र अवतरणों के संग्रहका कार्यभार पं० महेन्द्रकुमारजीके ऊपर रहा । कमी-कमी जरूरत के अनुसार प्रेस प्रूफ और मैटर देखनेका कार्य भी उनके ऊपर आता ही रहा । पर संगृहीत सभी अवतरणोंकी या नवीन लिखित टीकाकी माखिरी काट छांट करके उसे प्रेस योग्य अन्तिमरूप देनेका तथा अथेतिसमग्र प्रूफोंको देखनेका एवं मूलके नीचे दी हुई तुलना, विषयानुक्रम, परिशिष्ट आदि बाक्रीके सब कामोंका भार पं० दलसुखजीके ऊपर रहा। अन्तमें मैं यह सत्य प्रगट कर देना उचित समझता हूँ कि मेरे दोनों सहृदय सहकारी मित्र अपनी धीर कुशलतासे मेरा उपयोग न करते तो मैं अपनी नितान्त परतन्त्र स्थिति में कुछ भी करने में असमर्थ था। अतएव अगर इस नये संस्करणकी थोडी भी उपयोगिता सिद्ध हो तो उसका सर्वाश श्रेय मेरे दोनों सहकारी मित्रोंको है। सुखलाल संघवी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001070
Book TitleJain Tarka Bhasha
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P055
File Size8 MB
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