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________________ ( ११ ) संशोधनमें ख़ास मदद पहुंचाई है । शेष दो व्यक्तियों मेंसे एक है पञ्जाब गुजरानवाला गुरुकुल का छात्र शांतिलाल जो काशीमे प्राचीन न्याय और जैनागमका अध्ययन करता है। दूसरा है मेवाड छोटी सादडी गोदावत गुरुकुलका छात्र महेन्द्रकुमार जो अभी काशीमें नव्य न्यायका अध्ययन करता है। इन दोनोंने जब चाहा तब निःसंकोचभावसे, क्या लिखनेमें, क्या प्रूफ आदि देखने में जहां ज़रूरत हुई उत्साहसे मदद की है। मैं इन तीनोंके हार्दिक सहयोग का कृतज्ञ हूँ। विशिष्ट कृतज्ञता-संस्करणकी तैयारीसे लेकर उसके छप जाने तकमें सहयोगी होनेवाले समीका आभार प्रदर्शन कर लेनेपर मी एक विशिष्ट आभार प्रकट करना बाकी है और वह है सिंघी सिरीजके प्राण-प्रतिष्ठाता श्रीमान् बाबू बहादुर सिंहजी तथा पण्डित श्रीमान् जिनविजयजीका । इतिहास विशारद श्रीमान् जिनविजयजी मुझको अनेक वर्ष पहिलेसे प्रसङ्ग प्रसङ्ग पर कहा करते थे कि उपाध्यायजीके पाठ्यग्रन्थोंको टीकाटिप्पणी युक्त सुचारु रूपसे तैयार करो जो इस समय बड़े उपयोगी सिद्ध होंगे। उनका यह परामर्श मुझको अनेक बार प्रेरित करता था पर मैं इसे कार्यरूपमें अभी परिणत कर सका। उनका स्निग्ध और उपयोगी परामर्श प्रथमसे अन्ततक चालू न रहता तो सम्भव है मेरी प्रवृत्ति इस दिशामें न होती। इस कारणसे तथा सिंघी सिरीजमें प्रस्तुत संस्करणको स्थान देना उन्होंने पसन्द किया इस कारणसे मैं श्रीमान् पं० जिनविजयजीका सविशेष कृतज्ञ हूँ। यह कहने की जरूरत ही नहीं कि काग़ज़ साईज़ टाईप गेटअप आदिकी आखिरी पसन्दगी योग्यता तथा सिरीजसञ्चालकत्वके नाते उन्हींकी रही और इससे भी मुझको एक आश्वासन ही मिला । ___ श्रीमान् बाबू बहादुरसिंहजी सिंघीके प्रति विशेष कृतज्ञता प्रकाशित करना इसलिए उचित है कि उनकी सर्वांगपूर्ण साहित्य प्रकाशित करनेकी अभिरूचि और तदनुरूप उदारतामेंसे ही प्रस्तुत सिंघी सिरीजका जन्म हुआ है जिसमें कि प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशित हो रही है । विशिष्ट संस्करण तैयार व प्रकाशित करनेमें उपयोगी सभी बाह्य साधन निःसंकोच भावसे जुटानेकी सिरीजकी साधनसम्पत्ति प्राप्त न होती तो धैर्यपूर्वक इतना शान्तचिन्तन शायद ही सम्भव होता। कार्यका प्रारम्भ, पर्यवसान और विभाजन-ऊपर सूचित किया गया है कि तर्कभाषाके प्रस्तुत संस्करणका बीजन्यास पाटनमें १९३५ मईके प्रारम्भमें किया गया। वहां प्रतियोंसे पाठान्तर लेनेके साथ ही साथ उनकी शुद्धि-अशुद्धिके तरतम भावानुसार विवेक करके वहीं पाठान्तरोंका पृथक्करण और वर्गीकरण कर दिया गया। तदनन्तर अहमदाबादमें उसी छुट्टीमें पुनः अर्थदृष्टिसे ग्रन्थका चिन्तन कर उन पृथक्कृत और वर्गीकृत पाठान्तरोंको यथायोग्य मूल वाचनामें या नीचे पादटीकामें रख दिया। इसके बाद वह कार्य स्थगित रहा जो फिर ई० स० १९३६ के वर्षाकालमें काशीमें शुरू किया गया। उस वक्त मुख्य काम अवतरणोंके संग्रहका हुआ जिसके अधार पर ई० स० १९३७ के आरम्भमें तर्कभाषाकी वृत्तिके दोनों तात्पर्य और संग्रह अंश तैयार हुए। और उसी समय सारा मैटर प्रेसमें गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001070
Book TitleJain Tarka Bhasha
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P055
File Size8 MB
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