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भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
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चतुर्विध प्रमाणवादी नैयायिक, पंचविध प्रमाणवादी प्रभाकर षड्विध प्रमाणवादी मीमांसक, सप्तविध या अष्टविध प्रमाणवादी पौराणिक आदि की तरह अपनी अपनी अभिमत प्रमाण संख्या को स्थिर बनाये रखने के लिए इतर संख्या का अपलाप या उसे तोड़ मरोड़ करके अपने में समावेश करना पड़ता है । चाहे जितने प्रमाण मान लो पर वे सीधे तौर पर या तो प्रत्यक्ष होंगे या परोक्ष । इसी सादी किन्तु उपयोगी समझ पर जैनों का मुख्य प्रमाण विभाग कायम हुआ जान पड़ता है ।
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३. प्रत्यक्ष का तात्रिकत्व - प्रत्येक चिन्तक इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानता है । जैनदृष्टि का कहना है कि दूसरे किसी भी ज्ञान से प्रत्यक्ष का ही स्थान ऊँचा व प्राथमिक है । इन्द्रियाँ जो परिमित प्रदेश में अतिस्थूल वस्तुओं से आगे जा नहीं सकतीं, उनसे पैदा होनेवाले ज्ञान को परोक्ष से ऊँचा स्थान देना इन्द्रियों का अति मूल्य आँकने के बराबर है । इन्द्रियाँ कितनी ही पटु क्यों न हों पर वे अन्ततः हैं तो परतन्त्र ही । अतएव परतन्त्र जनित ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ प्रत्यक्ष मानने की अपेक्षा स्वतन्त्रजनित ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानना न्यायसंगत है । इसी विचार से जैन चिन्तकों ने उसी ज्ञान को वस्तुतः प्रत्यक्ष माना है जो स्वतन्त्र आत्मा के आश्रित है । यह जैन विचार तत्त्वचिन्तन में मौलिक है । ऐसा होते हुए भी लोकसिद्ध प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर उन्होंने अनेकान्त दृष्टि का उपयोग कर दिया है।
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४. इन्द्रियज्ञान का व्यापर क्रम - सब दर्शनों में एक या दूसरे रूप थोड़े या बहुत परिमाण में ज्ञान व्यापार का क्रम देखा जाता है । इसमें ऐन्द्रियक ज्ञान के व्यापार क्रम का भी स्थान है। परंतु जैन परंपरा में सन्निपातरूप प्राथमिक इन्द्रिय व्यापार से लेकर अंतिम इन्द्रिय व्यापार तक का जिस विश्लेषण और जिस स्पष्टता के साथ अनुभव सिद्ध अतिविस्तृत वर्णन है वैसा दूसरे दर्शनों में नहीं देखा जाता। यह जैन वर्णन है तो अतिपुराना और विज्ञानयुग के पहिले का, फिर भी आधुनिक मानस शास्त्र तथा इन्द्रियव्यापार शास्त्र के वैज्ञानिक अभ्यासियों के वास्ते यह बहुत महत्त्व का है " ।
५. परोक्ष के प्रकार - केवल स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और आगम के ही प्रामाण्य- अप्रामाण्य मानने में मतभेदों का जंगल न था; बल्कि अनुमान तक के प्रामाण्य- अप्रामाण्य में विप्रतिपत्ति रही । जैन तार्किकों ने देखा कि प्रत्येक पक्षकार अपने पक्ष को आत्यन्तिक खींचने में दूसरे पक्षकार का सत्य देख नहीं पाता । इस विचार में से उन्होंने उन सब प्रकार के ज्ञानों को प्रमाणकोटि में दाखिल किया जिनके बल पर वास्तविक व्यवहार चलता है और जिनमें से किसी एक का अपलाप करने पर तुल्य युक्ति से दूसरे का अपलाप करना अनिवार्य हो जाता है । ऐसे सभी प्रमाण प्रकारों को उन्होंने परोक्ष में डालकर अपनी समन्वयदृष्टि का परिचय कराया ।
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१ टिप्पण पृ० १९ पं० २९ तथा पृ० २३ पं० २४ ।
२ टिप्पण पृ० ४५ पं० १६ ।
३ प्रमाणमीमांसा १ २ २ । टिप्पण पृ० ७२ पं० २१ । ०७५ पं० ३ । ० ७६ ० २५
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