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________________ प्रस्तावना दृष्टि का आश्रय करने पर भी नैयायिक परमाणु, आत्मा आदि को सर्वथा अपरिणामी ही मानने मनवाने की धुन से बच न सके । व्यावहारिक-पारमार्थिक आदि अनेक दृष्टिओं का अवलम्बन करते हुए भी वेदान्ती अन्य सब दृष्टिओं को ब्रह्मदृष्टि से कम दरजे की या बिलकुल ही असत्य मानने मनवाने से बच न सके। इसका एक मात्र कारण यही जान पड़ता है कि उन दर्शनों में व्यापकरूप से अनेकान्त भावना का स्थान न रहा जैसा कि जैनदर्शन में रहा । इसी कारण से जैनदर्शन सब दृष्टिओं का समन्वय भी करता है और सभी दृष्टिओं को अपने अपने विषय में तुल्य बल व यथार्थ मानता है। भेद-अभेद, सामान्य-विशेष, नित्यत्व. अनित्यत्व आदि तत्वज्ञान के प्राचीन मुद्दों पर ही सीमित रहने के कारण वह अनेकान्त दृष्ठि और तन्मूलक अनेकान्त व्यवस्थापक शास्त्र पुनरुक्त, चर्वितचर्वण या नवीनता शुन्य जान पड़ने का आपाततः संभव है फिर भी उस दृष्टि और उस शास्त्र निर्माण के पीछे जो अखण्ड और सजीव सर्वांश सत्य को अपनाने की भावना जैन परंपरा में रही और जो प्रमाण शास्त्र में अवतीर्ण हुई उसका जीवनके समग्र क्षेत्रों में सफल उपयोग होने की पूर्ण योग्यता होने के कारण ही उसे प्रमाणशास्त्र को जैनाचार्यों की देन कहना अनुपयुक्त नहीं। .. तस्वचिन्तन में अनेकान्त दृष्टि का व्यापक उपयोग करके जैनतार्किकों ने अपने आगमिक प्रमेयों तथा सर्वसाधारण न्याय के प्रमेयों में से जो जो मन्तव्य तार्किक दृष्टि से स्थिर किये और प्रमाण शास्त्र में जिनका निरूपण किया उनमें से थोड़े ऐसे मन्तव्यों का भी निर्देश उदाहरण के तौर पर यहां कर देना जरूरी है, जो एक मात्र जैन तार्किकों की विशेषता दरसाने वाले हैं-प्रमाणविभाग, प्रत्यक्ष का तात्त्विकत्व, इन्द्रियज्ञान का व्यापार क्रम, परोक्ष के प्रकार, हेतु का रूप, अवयवों की प्रायोगिक व्यवस्था, कथा का स्वरूप, निग्रहस्थान या जय. पराजय व्यवस्था, प्रमेय और प्रमाता का स्वरूप, सर्वज्ञत्वसमर्थन आदि। २. प्रमाणविभाग-जैन परंपरा का प्रमाण विषयक मुख्य विभाग दो दृष्टिओं से अन्य परंपराओं की अपेक्षा विशेष महत्त्व रखता है। एक तो यह कि ऐसे सर्वानुभवसिद्ध वैलक्षण्य पर मुख्य विभाग अवलंबित है जिससे एक विभाग में आने वाले प्रमाण दूसरे विभाग से असं. कीर्ण रूप में अलग हो जाते हैं जैसा कि इतर परंपराओं के प्रमाण विभाग में नहीं हो पाता। दुसरी हष्टि यह है कि चाहे किसी दर्शन की न्यून या अधिक प्रमाण संख्या क्यों न हो पर वह सब बिना खींचतान के इस विभाग में समा जाती है। कोई भी ज्ञान या तो सीधे तौर से साक्षास्कारात्मक हो सकता है या असाक्षात्कारात्मक, यही प्राकृत-पंडितजन साधारण अनुभव है । इसी अनुभव को सामने रखकर जैन चिन्तकों ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो मुख्य विभाग किये जो एक दूसरे से बिलकुल विलक्षण हैं। दूसरी इसकी खूबी यह है कि इसमें न तो चार्वाक की तरह परोक्षानुभव का अपलाप है, न बौद्धदर्शन संमत प्रत्यक्ष-अनुमान द्वै. विध्य की तरह आगम आदि इतर प्रमाण व्यापारों का अपलाप है या खींचातानी से अनुमान में समावेश करना पड़ता है, और न त्रिविध प्रमाणवादी सांख्य तथा प्राचीन वैशेषिक, . प्रमाणमीमांसा १. १. १० तथा टिप्पण पृ० १९. पं० २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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