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प्रस्तावना
उचित है बस्कि अपरिणामी भी मानना जरूरी है। इस तरह प्रधानपरिणामवाद में चेतन तत्त्व आये पर वे निर्धर्मक और अपरिणामी ही माने गए।
(ब) ब्रह्मपरिणामवाद जो प्रधानपरिणामवाद का ही विकसित रूप जान पड़ता है उसने यह तो मान लिया कि स्थूल विश्व के मूल में कोई सूक्ष्म तत्त्व है जो स्थूल विश्व का कारण है । पर उसने कहा कि ऐसा सूक्ष्म कारण जड प्रधान तस्व मान कर उससे भिन्न सूक्ष्म चेतन तत्त्व भी मानना और वह भी ऐसा कि जो अजागलस्तन की तरह सर्वथा अकिञ्चित्किर सो युक्ति संगत नहीं। उसने प्रधानवाद में चेतन तत्त्व के अस्तित्व की अनुपयोगिता को ही नहीं देखा बरिक चेतन तत्त्व में अनन्त संख्या की कल्पना को भी अनावश्यक समझा। इसी समझ से उसने सूक्ष्म जगत् की कल्पना ऐसी की जिससे स्थूल जगत की रचना भी घट सके और अकिञ्चित्कर ऐसे अनन्त चेतन तत्त्वों की निष्प्रयोजन कल्पना का दोष भी न रहे । इसीसे इस वाद ने स्थूल विश्व के अन्तस्तल में जड चेतन ऐसे परस्पर विरोधी दो तत्व न मानकर केवल एक ब्रह्म नामक चेतन तत्व ही स्वीकार किया और उसका प्रधान परिणाम की तरह परिणाम मान लिया जिससे उसी एक चेतन ब्रह्म तत्व में से दूसरे जड चेतनमय स्थूल विश्व का आविर्भावतिरोभाव घट सके। प्रधानपरिणामवाद और ब्रह्मपरिणामवाद में फर्क इतना ही है कि पहिले में जड परिणामी ही है और चेतन अपरिणामी ही है जब दूसरे में अंतिम सूक्ष्म तत्व एक मात्र चेतन ही है जो स्वयं ही परिणामी है और उसी चेतन में से आगे के जड चेतन ऐसे दो परिणाम प्रवाह चले।
३ प्रतीत्यसमुत्पादवाद-यह भी स्थूल भूत के नीचे जड और चेतन ऐसे दो सूक्ष्म तत्त्व मानता है जो क्रमशः रूप और नाम कहलाते हैं। इस वाद के जड और चेतन दोनों सूक्ष्म तत्त्व परमाणु रूप हैं, आरंभवाद की तरह केवल जड तत्त्व ही परमाणु रूप नहीं । इस वाद में परमाणु का स्वीकार होते हुए भी उसका स्वरूप आरंभवाद के परमाणु से बिलकुल भिन्न माना गया है। आरंभवाद में परमाणु अपरिणामी होते हुए भी उनमें गुणधर्मों की उत्पादविनाश परंपरा अलग मानी जाती है। जब कि यह प्रतीत्यसमुत्पादवाद उस गुणधों की उत्पाद-विनाश परंपरा को ही अपने मत में विशिष्ट रूप से ढाल कर उसके आधारभूत स्थायी परमाणु द्रव्यों को बिलकुल नहीं मानता। इसी तरह चेतन तत्त्व के विषय में भी यह वाद कहता है कि स्थायी ऐसे एक या अनेक कोई चेतन तत्त्व नहीं। अलबत्ता सूक्ष्म जड उत्पाद विनाश शाली परंपरा की तरह दूसरी चैतन्यरूप उत्पादविनाशशाली परंपरा भी मूल में जड से भिन्न ही सूक्ष्म जगत् में विद्यमान है जिसका कोई स्थायी आधार नहीं। इस वाद के परमाणु इसलिये परमाणु कहलाते हैं कि वे सबसे अतिसूक्ष्म और अविभाज्य मात्र हैं। पर इसलिये परमाणु नहीं कहलाते कि वे कोई अविभाज्य स्थायी द्रव्य हों। यह वाद कहता है कि गुणधर्म रहित कूटस्थ चेतन तत्त्व जैसे अनुपयोगी हैं वैसे ही गुणधर्मों का उत्पाद विनाश मान लेने पर उसके आधार रूप से फिर स्थायी द्रव्य की कल्पना करना भी निरर्थक है । अतएव इस वाद के अनुसार सूक्ष्म जगत् में दो धाराएँ फलित होती हैं जो परस्पर बिलकुल भिन्न
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