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________________ प्रस्तावना या दुसरे रूपमें अनिन्द्रिय प्रमाण का सामर्थ्य माननेवालों की दृष्टि में अनेकधा विस्तीर्ण हुआ। अनिन्द्रिय सामर्थ्यवादी कोई क्यों न हो पर सबको स्थूल विश्व के अलावा एक सूक्ष्म विश्व भी नजर आया । सूक्ष्म विश्व का दर्शन उन सबका बराबर होने पर भी उनकी अपनी जुदीजुदी कल्पनाओं के तथा परंपरागत भिन्न-भिन्न कल्पनाओं के आधार पर सूक्ष्म प्रमेय के क्षेत्र में भी अनेक मत व संप्रदाय स्थिर हुए जिनको हम अति संक्षेप में दो विभागों में बाँटकर समझ सकते हैं। एक विभाग तो वह जिसमें जड़ और चेतन दोनों प्रकार के सूक्ष्म तत्त्वों को माननेवालोंका समावेश होता है । दूसरा वह जिसमें केवल चेतन या चैतन्य रूप ही सूक्ष्म तत्त्व को माननेवालों का समावेश होता है । पाश्चात्य तत्त्वज्ञानकी अपेक्षा भारतीय तत्त्वज्ञान में यह एक ध्यान देने योग्य भेद है कि इसमें सूक्ष्म प्रमेयतत्त्व माननेवाला अभी तक ऐसा कोई नहीं हुआ जो स्थूल भौतिक विश्व की तह में एकमात्र सूक्ष्म जड़तत्त्व ही मानता हो और सूक्ष्म जगत् में चेतन तत्त्वका अस्तित्व ही न मानता हो । इसके विरुद्ध ऐसे तत्त्वज्ञ भारत में होते आये हैं जो स्थूल विश्व के अन्तस्तल में एक मात्र चेतन तत्त्व का सूक्ष्म जगत मानते हैं। इसी अर्थ में भारत को चैतन्यवादी समझना चाहिए । भारतीय तत्त्वज्ञान के साथ पुनर्जन्म, कर्मवाद और बन्ध-मोक्ष की धार्मिक या आचरण लक्षी कल्पना भी मिली हुई है जो सूक्ष्म विश्व माननेवाले सभी को निर्विवाद मान्य है और सभीने अपने-अपने तत्त्व ज्ञान के ढांचे के अनुसार चेतन तत्त्वके साथ उसका मेल बिठाया है । इन सूक्ष्म तत्त्वदर्शी परंपराओं में मुख्यतया चार वाद ऐसे देखे जाते हैं, जिनके बल पर उस-उस परंपरा के आचार्यों ने स्थूल और सूक्ष्म विश्वका संबंध बतलाया है या कार्य कारण का मेल बिठाया है । वे वाद ये हैं-१ आरंभवाद, २ परिणामवाद, ३ प्रतीत्यसमुत्पादवाद और ४ विवर्तवाद। - आरम्भवाद के संक्षेप में चार लक्षण हैं-(१) परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त मूल कारणों का स्वीकार, (२) कार्य और कारण का आत्यन्तिक भेद, (३) कारण नित्य हो या अनित्य पर कार्योत्पत्ति में उसका अपरिणामी ही रहना, (४) अपूर्व अर्थात् उत्पत्ति के पहिले असत् ऐसे कार्य की उत्पत्ति या किञ्चित्कालीन सत्ता। परिणामवाद के लक्षण ठीक आरंभवाद से ऊलटे हैं-(१) एक ही मूल कारण का स्वीकार, (२) कार्यकारण का वास्तविक अभेद, ( ३) नित्य कारण का भी परिणामी होकर ही रहना तथा प्रवृत्त होना, (४) कार्य मात्र का अपने-अपने कारण में और सब कार्यों का मूल कारण में तीनों काल में अस्तित्व अर्थात् अपूर्व वस्तु की उत्पत्ति का सर्वथा इन्कार । प्रतीत्यसमुत्पाद वाद के तीन लक्षण हैं-(१) कारण और कार्य का आत्यन्तिक भेद, ( २ ) किसी भी नित्य या परिणामी कारण का सर्वथा अस्वीकार, (३ ) और प्रथम से असत् ऐसे कार्यमात्र का उत्पाद । । विवर्तवाद के तीन लक्षण ये हैं-(१) किसी एक पारमार्थिक सत्य का स्वीकार जो न उत्पादक है और न परिणामी, (२) स्थूल या सूक्ष्म भासमान जगत् को उत्पत्ति का या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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