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१४० प्रमाणमीमांसाया:
[पृ० ३८. पं० २२दोनों परम्पराएँ मुख्यतया प्रमाण के विषय में खासकर अनुमान प्रणाली के विषय में वैदिक परम्परा का ही अनुसरण करती हुई देखी जाती हैं।
२-ई० स० की पांचवीं शताब्दी से इस विषय में बौद्धयुग शुरू होता है। बौद्धयुग इसलिये कि अब तक में जो अनुमान प्रणाली वैदिक परम्परा के अनुसार ही मान्य होती आई 5 थी उसका पूर्ण बल से प्रतिवाद करके दिङ्नाग ने अनुमान का लक्षण स्वतन्त्र भाव से रचा
और उसके प्रकार भी अपनी बौद्ध दृष्टि से बतलाए। दिङ्नाग के इस नये अनुमान प्रस्थान को सभी उत्तरवर्ती बौद्ध विद्वानों ने अपनाया और उन्होंने दिङ नाग की तरह ही न्याय श्रादि शास्त्र संमत वैदिक परम्परा के अनुमान लक्षण, प्रकार आदि का खण्डन किया जो
कि कभी प्रसिद्ध पूर्ववर्ती बौद्ध तार्किको ने खुद ही स्वीकृत किया था। अब से वैदिक और 10 बौद्ध तार्किकों के बीच खण्डन-मण्डन की खास आमने सामने छावनियाँ बन गई।
पात्स्यायनभाष्य के टोकानुटीकाकार उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र आदि ने वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध तार्किकों के अनुमानलक्षणप्रणयन प्रादि का जोर शोर से खण्डन किया४ जिसका उत्तर क्रमिक बौद्ध तार्किक देते गये हैं।
बौद्धयुग का प्रभाव जैन परम्परा पर भी पड़ा। बौद्धतार्किको के द्वारा वैदिक पर. 15 म्परासम्मत अनुमान लक्षण, भेद आदि का खण्डन होते और स्वतन्त्रभाव से लक्षणप्रणयन
होते देखकर सिद्धसेन जैसे जैन तार्किकों ने भी स्वतन्त्रभाव से अपनी दृष्टि के अनुसार अनुमान का लक्षणप्रणयन किया। भट्टारक अकलङ्क ने उस सिद्धसेनीय लक्षण प्रणयन मात्र में ही संतोष न माना। पर साथ ही बैद्धितार्किकों की तरह वैदिक परम्परा सम्मत
अनुमान के भेद प्रभेदों के खण्डन का सूत्रपात भी स्पष्ट, किया६ जिसे विद्यानन्द आदि उत्तर20 वर्ती दिगम्बरीय तार्किकों ने विस्तृत व पल्लवित किया ।
नये बौद्ध युग के दो परिणाम स्पष्ट देखे जाते हैं। पहिला तो यह कि बौद्ध और जैन परम्परा में स्वतन्त्र भाव से अनुमान लक्षण आदि का प्रणयन और अपने ही पूर्वाचार्यों के द्वारा कभी स्वीकृत वैदिक परम्परा संमत अनुमानलक्षण विभाग आदि का खण्डन । दूसरा
परिणाम यह है कि सभी वैदिक विद्वानों के द्वारा बौद्ध संमत अनुमान प्रणाली का खण्डन व 25 अपने पूर्वाचार्य सम्मत अनुमान प्रणाली का स्थापन। पर इस दूसरे परिणाम में चाहें गौण
रूप से ही सही एक बात यह भी उल्लेखयोग्य दाखिल है कि भासर्वज्ञ जैसे वैदिक परम्परा
१ प्रमाणसमु०२. १. Buddhist Logic. Vol. I. p. 236. २ "अनुमानं लिङ्गादर्थदर्शनम्"-न्यायप्र० पृ०७। न्यायबि०२.३। तस्वसं० का०१३६२ । ३ प्रमाणसमु० परि०२। तस्वसं० का० १४४२ तात्पर्य० पृ० १८०। ४ न्यायवा० पृ०४६। तात्पय०पृ० १८०। ५ "साध्याविनम्भुनो लिङ्गात्साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानम्".-न्याया०५। ६न्यायवि०२.१७१,१७२। ७ तत्वार्थश्लो०पू०२०५। प्रमेयक० पृ०१०५
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