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________________ पृ० ३८. पं० २२] भाषाटिप्पणानि १३६ निरुत्तर रहेंगे। फिर भी इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसके प्राथमिक विकास का प्रन्थन भो वैदिक परंपरा के प्राचीन अन्य ग्रन्थों में देखा जाता है। - यह विकास वैदिकयुगीन इस लिये भी है कि इसके प्रारम्भ करने में जैन और बौद्ध परम्परा.का हिस्सा तो है ही नहीं बल्कि इन दोनों परम्पराओं ने वैदिक परम्परा से ही उक्त शास्त्रीय निरूपण को शुरू में अक्षरश: अपनाया है। यह वैदिकयुगीन अनुमान निरूपण हमें 5 दो वैदिक परम्पराओं में थोड़े बहुत हेर फेर के साथ देखने को मिलता है। (अ) वैशेषिक और मीमांसक परम्परा-इस परम्परा को स्पष्टतया व्यक्त करनेवाले इस समय हमारे सामने प्रशस्त और शाबर दो भाष्य हैं। दोनों में अनुमान के दो प्रकारों का ही उल्लेख है? जो मूल में किसी एक विचार परम्परा का सूचक है। मेरा निजी भी मानना है कि मूल में वैशेषिक और मीमांसक दोनों परम्पराएँ कभी अभिन्न थीं२, जो 10 आगे जाकर क्रमशः जुदी हुई और भिन्न भिन्न मार्ग से विकास करती गई। (ब) दूसरी वैदिक परम्परा में न्याय, सांख्य और चरक इन तीन शास्त्रों का समावेश है। इनमें अनुमान के तीन प्रकारों का उल्लेख व वर्णन है३ । वैशेषिक तथा मीमांसक दर्शन में वर्णित दो प्रकार के बोधक शब्द करीब करीब समान हैं, जब कि न्याय आदि शास्त्रों की दूसरी परम्परा में पाये जानेवाले तीन प्रकारों के बोधक शब्द एक ही हैं। अलबत्ता सब 15 शाखों में उदाहरण एक से नहीं हैं। जैन परम्परा में सब से पहिले अनुमान के तीन प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र में जो ई० स. पहली शताब्दी का है-ही पाये जाते हैं, जिनके बोधक शब्द अक्षरशः न्यायदर्शन के अनुसार ही हैं। फिर भी अनुयोगद्वार वर्णित तीन प्रकारों के उदाहरणों में इतनी विशेषता अवश्य है कि उनमें भेद-प्रतिभेद रूप से वैशेषिक-मीमांसक दर्शनवाली द्विविध अनु- 20 मान की परस्परा का भी समावेश हो ही गया है। . बौद्ध परम्परा में अनुमान के न्यायसूत्रवाले तीन प्रकार का ही वर्णन है जो एक मात्र उपायहृदय ( पृ० १३ ) में अभी तक देखा जाता है। जैसा समझा जाता. है, उपायहृदय प्रगर नागार्जुनकृत नहीं हो तो भी वह दिङ नाग का पूर्ववर्ती अवश्य होना चाहिए। इस तरह हम देखते हैं कि ईसा की चौथी पाँचवीं शताब्दी तक के जैन-बौद्ध साहित्य में वैदिक 25 युगीन उक्त दो परम्पराओं के अनुमान वर्णन का ही संग्रह किया गया है। तब तक में उक्त १ "तत्तु द्विविधम्-प्रत्यक्षता दृष्टसम्बन्धं सामान्यतो दृष्टसम्बन्धं च"-शाबरभा० १. १:५। "तत्तु द्विविधम्-दृष्टं सामान्यतो दृष्टं च"-प्रशस्त० पृ० २०५। .२ मीमांसा दर्शन 'अथातो धर्मजिज्ञासा' में धर्म से ही शुरू होता है वैसे ही वैशेषिक दर्शन भी 'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' सूत्र में धर्मनिरूपण से शुरू होता है।,, 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' और 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' दोनों का भाव समान है। .. ३ "पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो रटं च” न्यायसू० १. १.५। माठर० का०.५। चरक० सूत्रस्थान श्लो० २८, २६ । ४ "तिविहे पएणते तंजहा-पुत्ववं, सेसवं, दिट्ठसाहम्मवं ।'-अनुयो० पृ० २१२A । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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