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________________ ५० ३१. पं० २१.] भाषाटिप्पणानि । एवं यहाँ जो दार्शनिकों का मतभेद दिखाया जाता है वह स्वप्रत्यक्ष और परप्रत्यक्ष अर्थ को लेकर ही समझना चाहिए। स्वप्रत्यक्षवादी वे ही हो सकते हैं जो ज्ञान का स्वप्रत्यक्ष मानते हैं और साथ ही ज्ञान-प्रात्मा का अभेद या कथंचिदभेद मानते हैं। शङ्कर, रामानुज आदि वेदान्त, सांख्य, योग, विज्ञानवादी बौद्ध और जैन इनके मत से प्रात्मा स्वप्रत्यक्ष हैचाहे वह आस्मा किसी के मत से शुद्ध व नित्य चैतन्यरूप हो, किसी के मत से जन्य ज्ञानरूप। ही हो या किसी के मत से चैतन्य-ज्ञानोभयरूप हो-क्योंकि वे सभी प्रात्मा और ज्ञान का अभेद मानते हैं तथा ज्ञानमात्र को स्वप्रत्यक्ष ही मानते हैं। कुमारिल ही एक ऐसे हैं जो ज्ञान को परोक्ष मानकर भी आत्मा को वेदान्त की तरह स्वप्रकाश ही कहते हैं। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि कुमारिल ने आत्मा का स्वरूप श्रुतिसिद्ध ही माना है और ' श्रुति प्रों में स्वप्रकाशत्व स्पष्ट है अतएव ज्ञान का परोक्षत्व मानकर भी आत्मा को स्वप्रत्यक्ष 10 विना माने उनकी दूसरी गति ही नहीं। पर प्रत्यक्षवादी वे ही हो सकते हैं जो ज्ञान को आत्मा से भिन्न पर उसका गुण मानते हैं-चाहे वह ज्ञान किसी के मत से स्वप्रकाश हो जैसा प्रभाकर के मत से, चाहे किसी के मत से परप्रकाश हो जैसा नैयायिकादि के मत से। प्रभाकर के मतानुसार प्रत्यक्ष, अनुमिति, आदि कोई भी संवित् हो पर उसमें आत्मा 15 प्रत्यक्षरूप से अवश्य भासित होता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में मतभेद है। उसके अनुगामी प्राचीन हो या अर्वाचीन सभी एक मत से योगो की अपेक्षा आत्मा को परप्रत्यक्ष ही मानते हैं क्योंकि सब के मतानुसार योगज प्रत्यक्ष के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार होता है। पर अस्मदादि अग्दिर्शी की अपेक्षा उनमें मतभेद है। प्राचीन नैयायिक और वैशेषिक विद्वान् अाग्दर्शी के आत्मा को प्रत्यक्ष न मानकर अनुमेय मानते हैं३, जब कि 20' पीछे के न्याय-वैशेषिक विद्वान् अवीग्दर्शो आत्मा को भी उसके मानसप्रत्यक्ष का विषय मान कर परप्रत्यक्ष बतलाते हैं। ज्ञान को प्रात्मा से भिन्न माननेवाले सभी के मत से यह बात फलित होती है कि मुक्तावस्था में योगजन्य या और किसी प्रकार का ज्ञान न रहने के कारण आत्मा न तो साक्षात्कती है और न साक्षात्कार का विषय । इस विषय में दार्शनिक कल्पनाओं का राज्य 25 अनेकधा विस्तृत है पर वह यहाँ प्रस्तुत नहीं। । १ "आत्मनैव प्रकाश्योऽयमात्मा ज्योतिरितीरितम्”- श्लोकवा० श्रात्मवाद श्लो० १४२। २ "युञ्जानस्य योगसमाधिजमात्ममनसाः संयोगविशेषादात्मा प्रत्यक्ष इति ।"-न्यायभा० १.१.३। "आत्मन्यात्ममनमाः संयोगविशेषाद श्रात्मप्रत्यक्षम्-वैशे० ६.१.११।। . ३ "आत्मा तावत्प्रत्यक्षतो न गृह्यते"--न्यायभा० १.१.१०।" तत्रात्मा मनश्चाप्रत्यक्षेवैशे०८.१.२। ४ "तदेवमहंप्रत्ययविषयत्वादात्मा तावत् प्रत्यक्षः"-न्यायवा० पृ०३४२ । “अहङ्कारस्याश्रयोऽयं मनोमात्रस्य गोचरः"-कारिकावली ५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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