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________________ १३६ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० २६. पं० २४...प्र. १.पा १. सू० ३५-३६. पृ० २६-पीछे हमने लिखा है कि 'प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपना वैयाकरणत्व अकर्षक तार्किक शैली में व्यक्त किया है' (टिप्पण पृ० ६६) इसका खुलासा यों समझना चाहिए । वैयाकरणों की परिभाषा के अनुसार क्रियावाची शब्द धातु कहलाता है और धातुप्रतिपाद्य अर्थ क्रिया कही जाती है। अकर्मक धातु के वाच्य फल और व्यापार 5 दोनों समानाधिकरण अर्थात् कनिष्ठ हाते हैं। जब कि सकर्मक धातु के वाच्य फल और व्यापार दोनों अंश जो धातु वाच्य होने के कारण क्रियारूप हैं वे व्यधिकरण अर्थात् अनुक्रम से कर्मनिष्ठ और कनिष्ठ होते हैं३ । प्रकृत प्रमाण-फल की चर्चा में ज्ञाधातु का व्यापाररूप अर्थ जो कनिष्ठ है उसको प्रमाण कहा है और उसका फलरूप अर्थ जो कर्मनिष्ठ है उसे फल कहा है। ज्ञाधातु सकर्मक होने से उसके ज्ञानात्मक व्यापार और तज्जन्य प्रकाशरूप फल दोनों 10 अनुक्रम से कर्तृ निष्ठतया और कर्मनिष्ठतया प्रतिपाद्य हैं और दोनों क्रियारूप हैं। पृ० ३,१. पं० २१. 'स्वपराभासी-प्राचार्य ने सूत्र में प्रात्मा को स्वाभासी और पराभासी कहा है। यद्यपि इन दो विशेषणों को लक्षित करके हमने संक्षेप में टिप्पण लिखा है (टिप्पण पृ०७०) फिर भी इस विषय में अन्य दृष्टि से लिखना आवश्यक समझ कर यहाँ थोड़ा सा विचार लिखा जाता है। 15 . 'स्वाभासी' पद के 'स्व' का आभासनशील और 'स्व' के द्वारा प्राभासनशील ऐसे दो अर्थ फलित होते हैं पर वस्तुत: इन दोनों अर्थों में कोई तात्त्विक भेद नहीं। दोनों अर्थों का .. मतलब स्वप्रकाश से है और स्वप्रकाश का तात्पर्य भी स्वप्रत्यक्ष ही है। परन्तु 'परामासी' पद से फलित होनेवाले दो अर्थों की मर्यादा एक नहीं। पर का आभासनशील यह एक अर्थ जिसे वृत्ति में प्राचार्य ने स्वय' ही बतलाया है और पर के द्वारा प्राभासनशील यह 20 दूसरा अर्थ । इन दोनों अर्थों के भाव में अंतर है। पहिले अर्थ से प्रात्मा का परप्रकाशन स्वभाव सूचित किया जाता है जब कि दूसरे अर्थ से स्वयं आत्मा का अन्य के द्वारा प्रकाशित होने का स्वभाव सूचित होता है। यह तो समझ ही लेना चाहिए कि उक्त दो अर्थों में से दूसरा अर्थात् गर के द्वारा आभासित होना इस अर्थ का तात्पर्य पर के द्वारा प्रत्यक्ष होना इस अर्थ में है। पहिले अर्थ का तात्पर्य तो पर को प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी रूप से भासित 25 करना यह है। जो दर्शन प्रात्मभिन्न तत्त्व को भी मानते हैं वे सभी प्रात्मा को पर का अवभासक मानते ही हैं। और जैसे प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से पर का प्रवभासक प्रात्मा अवश्य होता है वैसे ही वह किसी न किसी रूप से स्व का भी अवभासक होता ही है प्रत . १ "क्रियार्थो धातुः"- हैमश० ३. ३.३। “कृतिः क्रिया प्रवृत्तिापार इति यावत् । पूर्वापरीभूता साध्यमानरूपा सा अर्थोऽभिधेयं यस्य स शब्दो धातुसंज्ञो भवति ।"-हैमश० ० ३. ३.३। २ "भवत्यर्थः साध्यरूपः क्रियासामान्य धात्वर्थः स धातुनैवोच्यते ।" हैमश० वृ०५. ३. १८। ३ फलव्यापारयोरेकनिष्तायामकर्मकः। धातुस्तयोर्धर्मिभेदे सकर्मक , उदाहृतः ॥" वै० भूषण० का०१३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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