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________________ १३२ प्रमाणमीमांसायाः [पृ०६. पं०-२६प्राचार्य हेमचन्द्र ने जैन परम्परासम्मत ज्ञानमात्र के प्रत्यक्षत्व स्वभाव का सिद्धान्त मानकर ही उसका स्वनिर्णयत्व स्थापित किया है और उपर्युक्त द्विविध परप्रकाशत्व को प्रतिवाद किया है। इनके स्वपक्षस्थापन और परपक्ष-निरास की दलीलें तथा प्रत्यक्ष-अनुमान प्रमाण का उपन्यास यह सब वैसा ही है जैसा शालिकनाथ की प्रकरणपश्चिका तथा 5 श्रीभाष्य आदि में है। स्वपक्ष के ऊपर औरों के द्वारा उद्भावित दोषों का परिहार भी प्राचार्य का वैसा ही है जैसा उक्त ग्रन्थों में है। पृ०६. पं० २६ 'विशद-प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में अन्य मुद्दों पर लिखने के पहले यह जता देना जरूरी है कि प्राचीन समय में लक्षणकार ऋषि प्रत्यक्ष लक्षण का लक्ष्य कितना समझते थे अर्थात् वे जन्य प्रत्यक्ष मात्र को लक्ष्य मानकर लक्षण रचते थे, या जन्य-नित्य10 साधारण प्रत्यक्ष को लक्ष्य मानकर लक्षण रचते थे जैसा कि उत्तरकालीन नैयायिकों ने प्रागे जाकर जन्य-नित्य साधारण प्रत्यक्ष का लक्षण रचा है । जहाँ तक देखा गया उससे यही जान पड़ता है कि प्राचीन समय के लक्षणकारों में से किसी ने चाहै वह ईश्वराविरोधी नैयायिक वैशेषिक ही क्यों न हो जन्य-नित्य साधारण प्रत्यक्ष का लक्षण बनाया नहीं है। ईश्वराविरोधी हो या ईश्वरविरोधी सभी दर्शनकारों के प्राचीन मूल प्रन्थों में एक मात्र जन्यप्रत्यक्ष 15 का ही निरूपण है। नित्यप्रत्यक्ष का किसी में सम्भव भी है और सम्भव है तो वह ईश्वर में ही होता है इस बात का किसी प्राचीन ग्रन्थ में सूचन तक नहीं । अपारुषेयत्व के द्वारा वेद के प्रामाण्य का समर्थन करनेवाले मीमांसकों के विरुद्ध न्याय-वैशेषिक दर्शन ने यह स्थापन तो शुरू कर दिया कि वेद शब्दात्मक और अनित्य होने से उसका प्रामाण्य अपौरु षेयत्व-मूलक नहीं किन्तु पौरुषेयत्व-मूलक ही है। फिर भी उस दर्शन के प्राचीन विद्वानों 20 ने वेद-प्रणेतारूप से कहीं ईश्वर का स्पष्ट स्थापन नहीं किया है। उन्होंने वेद को प्राप्त ऋषिप्रणीत कह कर ही उसका प्रामाण्य मीमांसक-सम्मत प्रक्रिया से भिन्न प्रक्रिया द्वारा स्थापित किया और साथ ही वेदाप्रामाण्यवादी जैन बौद्ध आदि को जवाब भी दे दिया कि वेद प्रमाण है क्योंकि उसके प्रणेता हमारे मान्य ऋषि प्राप्त ही रहे२ । पिछले व्याख्याकार नैयायिको ने जैसे ईश्वर को जगतस्रष्टा भी माना और वेद-प्रणेता भी, इसी तरह उन्होंने उसमें 25 नित्यज्ञान की कल्पना भी की वैसे किसी भी प्राचीन वैदिक दर्शनसूत्रग्रन्थों में न तो ईश्वर का जगत्स्रष्टा रूप से न वेदक" रूप से स्पष्ट स्थापन है और न कहीं भी उसमें नित्यज्ञान के अस्तित्व का उल्लेख भी है। अतएव यह सुनिश्चित है कि प्राचीन सभी प्रत्यक्ष लक्षणों का लक्ष्य केवल जन्य प्रत्यक्ष ही है। इसी जन्य प्रत्यक्ष को लेकर कुछ मुद्दों पर यहाँ विचार प्रस्तुत है। १ वैशे० ३. १. २८ । “इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्"न्यायसू० १. १.४। "प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम्”- सांख्यका०५। सांख्यसू० १.८६ । योगभा० १.७। “सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणाम......"-जैमि० १.१.४। “आत्मेन्द्रियमनोऽर्थात् सन्निकर्षात् प्रवर्तते । व्यक्ता तदात्वे या बुद्धिः प्रत्यक्षं सा निरूप्यते ॥"-चरकसं० ११.२०। २ न्यायसू० १.१.७, २. १. ६६। वैशे० ६.१.१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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