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४० ३. पं० १४]
भाषाटिप्पणानि ।
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के अनुसार ज्ञानभिन्न अर्थ का अस्तित्व ही नहीं और ज्ञान भी साकार। प्रभाकर के मतानुसार बाह्यार्थ का अस्तित्व है ( बृहती पृ० ७४ ) जिसका संवेदन होता है। वेदान्त के अनुसार ज्ञान मुख्यतया ब्रह्मरूप होने से नित्य ही है। जैन मत प्रभाकर मत की तरह बासार्थ का अस्तित्व और ज्ञान को जन्य स्वीकार करता है। फिर भी वे सभी इस बारे में एकमत हैं कि ज्ञानमात्र स्वप्रत्यक्ष हैं अर्थात् ज्ञान प्रत्यक्ष हो या अनुमिति, शब्द, स्मृति । प्रादि रूप हो फिर भी वह स्वस्वरूप के विषय में साक्षात्काररूप ही है, उसका अनुमितित्व, शान्दत्व, स्मृतित्व प्रादि अन्य ग्राह्य की अपेक्षा से समझना चाहिए अर्थात् भिन्न भिन्न सामग्रीर से प्रत्यक्ष, अनुमेय, स्मर्तव्य आदि विभिन्न विषयों में उत्पन्न होनेवाले प्रत्यक्ष, अनुमिति, स्मृति मादि ज्ञान भी स्वस्वरूप के विषय में प्रत्यक्ष ही हैं।
ज्ञान को परप्रत्यक्ष अर्थ में परप्रकाश माननेवाले सांख्ययोग और न्याय-वैशेषिक 10 हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान का स्वभाव प्रत्यक्ष होने का है पर वह अपने माप प्रत्यक्ष हो नहीं सकता। उसकी प्रत्यक्षता प्रन्याश्रित है। अतएव ज्ञान चाहे प्रत्यक्ष हो, अनुमिति हो, या शब्द, स्मृति प्रादि अन्य कोई, फिर भी वे सब स्वविषयक अनुव्यवसाय के द्वारा प्रत्यक्षरूप से गृहीत होते ही हैं। परप्रत्यक्षत्व के विषय में इनका ऐकमत्य होने पर भी परशन्द के अर्थ के विषय में ऐकमत्य नहीं क्योंकि न्याय-वैशेषिक के अनुसार तो पर का अर्थ 16 है अनुव्यवसाय जिसके द्वारा पूर्ववर्ती कोई भी ज्ञानव्यक्ति प्रत्यक्षतया गृहीत होती है परन्तु , सांख्य-योग के अनुसार पर शब्द का अर्थ है. चैतन्य जो पुरुष का सहज स्वरूप है और जिसके द्वारा ज्ञानात्मक सभी बुद्धिवृत्तियाँ प्रत्यक्षतया भासित होती हैं।
परानुमेय अर्थ में परप्रकाशवादी केवल कुमारिल हैं जो ज्ञान को स्वभाव से ही परोक्ष मानकर उसका तज्जन्यज्ञाततारूप लिङ्ग के द्वारा अनुमान मानते हैं, जो अनुमान कार्यहेतुक 20 कारणविषयक है-शास्त्रदी० पृ० १५७ । कुमारिल के सिवाय और कोई ज्ञान को अत्यन्त परोक्ष नहीं मानता। प्रभाकर के मतानुसार जो फलसंवित्ति से ज्ञान का अनुमान माना माता है वह कुमारिल-संमत प्राकट्यरूप फल से होनेवाले ज्ञानानुमान से बिलकुल जुदा है। कुमारिल तो प्राकटय से ज्ञान, जो प्रात्मसमवेत गुण है उसका अनुमान मानते हैं जब कि प्रभाकरमतानुसार संविद्रुप फल से अनुमित होनेवाला ज्ञान वस्तुत: ज्ञान गुण नहीं किन्तु 25 झानगुणजनक समिकर्ष मादि जड सामग्री ही है । इस सामग्री रूप अर्थ में ज्ञान शब्द के प्रयोग का समर्थन करणार्थक 'अन्' प्रत्यय मान कर किया जाता है।
१ "सहोपलम्भनियमादभेदोनीलतद्धियोः". बृहती पृ०२४। "प्रकाशमानस्तादात्म्यात् स्वरूपस्य प्रकाशकः। यथा प्रकाशोऽभिमतः तथा धीरात्मवेदिनी।"-प्रमाणवा०३. ३२६ ।
२ सर्वविज्ञानहेतूत्था......यावती काचिदग्रहणस्मरणरूपा"-प्रकरणप० पृ०५६।
३ "सदा शाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभाः पुरुषस्यापरिणामित्वात् । न तत्स्वाभासं दृश्यत्वात्"-- . योगसू० ४. १८, १६ । - ४ “मनेाग्राह्य सुखं दु:खमिच्छा द्वेषो मतिः कृतिः"--कारिकावली ५७।
'५ संविदुत्पत्तिकारणमात्ममनःसन्निकर्षाख्यं तदित्यवगम्य परितुष्यतामायुष्मता-प्रकरणाप० पू०६३।
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