SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृ० ६४. पं० २६.] भाषाटिप्पणानि । १२१ जैन तार्किक ने ब्राह्मण परम्परा के निग्रहस्थानों को अपनाया हो या स्वतन्त्र बौद्ध परम्परा के निग्रहस्थाननिरूपण को अपनाया हो ऐसा मालूम नहीं होता। अतएव जैन परम्परा के सामने निग्रहस्थान का स्वतन्त्र भाव से निरूपण करने का ही प्रश्न रहा जिसको भट्टारक प्रकलङ्क ने सुलझाया। उन्होंने निग्रहस्थान का लक्षण स्वतन्त्र भाव से ही रचा और उसकी व्यवस्था बाँधी जिसका अक्षरशः अनुसरण उत्तरवर्ती सभी दिगम्बर श्वेताम्बर तार्किकों ने 6 किया है। अकलङ्ककृत स्वतन्त्र लक्षण का मात्र स्वीकार कर लेने से जैन तार्किकों का कर्तव्य पूरा हो नहीं सकता था जब तक कि वे अपनी पूर्ववर्ती और अपने सामने उपस्थित ब्राह्मण और बौद्ध दोनों परम्पराओं के निग्रहस्थान के विचार का खण्डन न करें। इसी दृष्टि से प्रकलङ्क के अनुगामी विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र आदि ने विरोधी परम्पराओं के खण्डन का कार्य विशेष रूप से शुरू किया। हम उनके ग्रन्थों में२ पाते हैं कि पहिले तो उन्हेंोंने न्याय पर. 10 म्परा के निग्रहस्थानों का खण्डन किया और पोछे बौद्ध परम्परा के निग्रहस्थान लक्षण का । जहाँ तक देखने में पाया है उससे मालूम होता है कि धर्मकीर्ति के लक्षण का संक्षेप में स्वतन्त्र खण्डन करनेवाले सर्वप्रथम अकलङ्क हैं और विस्तृत खण्डन करनेवाले विद्यानन्द और तदुपजीवी प्रभाचन्द्र हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने निग्रहस्थाननिरूपण के प्रसङ्ग में मुख्यतया तीन बातें पाँच सूत्रों में 15 निबद्ध की हैं। पहिले दो सूत्र २. १. ३१, ३२ में जय और पराजय की क्रमश: व्याख्या है और तीसरे २.१.३३ में निग्रह की व्यवस्था है जो अकलङ्करचित है और जो अन्य सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर तार्किक सम्मत भी है। चौथे २. १. ३४ सूत्र में न्यायपरम्परा के निग्रहस्थानलक्षण का खण्डन किया है, जिसकी व्याख्या प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड का अधिकांश प्रतिबिम्ब मात्र है। इसके बाद अन्तिम २. १. ३५ सूत्र में हेमचन्द्र ने धर्मकीर्ति के स्वतन्त्र 20 निग्रहस्थान लक्षण का खण्डन किया है जो अक्षरशः प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० २०३ A ) की ही नकल है। इस तरह निग्रहस्थान की तीन परम्पराओं में से न्याय व बौद्धसम्मत दो परम्परामों का खण्डन करके प्राचार्य हेमचन्द्र ने तीसरी जैन परम्परा का स्थापन किया है। अन्त में जय-पराजय की व्यवस्था सम्बन्धो तीनों परम्पराओं के मन्तव्य का रहस्य 25 संक्षेप में लिख देना जरूरी है। जो इस प्रकार है--ब्राह्मण परम्परा में छल, जाति प्रादि का प्रयोग किसी हद तक सम्मत होने के कारण छल आदि के द्वारा किसी को पराजित करने मात्र से भी छल आदि का प्रयोक्ता अपने पक्ष की सिद्धि बिना किए ही जयप्राप्त माना जाता है। अर्थात् ब्राह्मण परम्परा के अनुसार यह नियम नहीं कि जयलाभ के वास्ते पक्षसिद्धि करना अनिवार्य ही हो। 30 १ दिगम्बर परम्परा में कुमारनन्दी प्राचार्य का भी एक वादन्याय ग्रन्थ रहा। “कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निगदितत्वात्"-पत्रपरीक्षा पृ०३। २ तत्त्वार्थश्लो० पृ० २८३। प्रमेयक० पृ० २०० B। 16. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy