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________________ १२० प्रमाणमीमांसायाः होने पर भी निर्विवाद रूप से स्वीकृत रहा है । चरक का निग्रहस्थानवर्णन अक्षरश: तो अक्षपाद के वर्णन जैसा नहीं है फिर भी उन दोनों के वर्णन की भित्ति एक ही है। बौद्ध परम्परा का निग्रहस्थानवर्णन दो प्रकार का है। एक ब्राह्मणपरम्परानुसारी और दूसरा स्वतन्त्र । पहिला वर्णन प्राचीन बौद्ध र तर्कप्रन्थों में हैं, जो लक्षण, संख्या, उदाहरण आदि 5 अनेक बातों में बहुधा अक्षपाद के और कभी कभी चरक ( पृ० २६६ ) के वर्णन से मिलता २ है । ब्राह्मण परम्परा का विरोधी स्वतन्त्र निग्रहस्थाननिरूपण बौद्ध परम्परा में सबसे पहिले किसने शुरू किया यह अभी निश्चित नहीं । तथापि इतना तो निश्चित ही है कि इस समय ऐसे स्वतन्त्र निरूपणवाला पूर्ण और अति महत्व का जो 'वादन्याय' ग्रन्थ हमारे सामने मौजूद है वह धर्मकीर्ति का होने से इस स्वतन्त्र निरूपण का श्रेय धर्मकीर्ति की अवश्य 1 सम्भव है इसका कुछ बीजारोपण तार्किकप्रवर दिङ्नाग ने भी किया हो । जैन परम्परा में निग्रहस्थान के निरूपण का प्रारम्भ करनेवाले शायद पात्रकेसरी स्वामी हों । पर उनका कोई प्रन्थ अभी लभ्य नहीं । अतएव मौजूदा साहित्य के आधार से तो भट्टारक अकलङ्क को ही इसका प्रारम्भक कहना होगा। पिछले सभी जैन तार्किकों ने अपने अपने निग्रहस्थाननिरूपण में भट्टारक अकलङ्क के ही वचनरे को उद्धृत किया है, जो हमारी उक्त सम्भावना का समर्थक है । 10 15 [ पृ० ६४. पं० 20 पहिले तो बौद्ध परम्परा ने न्याय परम्परा के ही निग्रहस्थानों को अपनाया इसलिए उसके सामने कोई ऐसी निग्रहस्थानविषयक दूसरी विरोधी परम्परा न थी जिसका बौद्ध तार्किक खण्डन करते पर एक या दूसरे कारण से जब बौद्ध तार्किकों ने निग्रहस्थान का स्वतन्त्र निरूपण शुरू किया तब उनके सामने न्याय परम्परा वाले निग्रहस्थानों के खण्डन का प्रश्न स्वयं ही आ खड़ा हुआ । उन्होंने इस प्रश्न को बड़े विस्तार व बड़ी सूक्ष्मता से सुलकाया । धर्मकीर्ति ने वादन्याय नामक एक सारा ग्रन्थ इस विषय पर लिख डाला जिस पर शान्तरक्षित ने स्फुट व्याख्या भी लिखी । वादन्याय में धर्मकीर्ति ने निग्रहस्थान का लक्षण एक कारिका में स्वतन्त्र भाव से बाँधकर उस पर विस्तृत चर्चा की और अक्षपादसम्मत एवं वात्स्यायन तथा उद्योतकर के द्वारा व्याख्यात निग्रहस्थानों के लक्षणों का एक एक शब्द लेकर 25 विस्तार से खण्डन किया। इस धर्मकीर्ति की कृति से निग्रहस्थान की निरूपणपरम्परा स्पष्टता विरोधी प्रवाहों में बँट गई । करीब करीब धर्मकीर्त्ति के समय में या कुछ ही आगे पीछे जैन तार्किकों के सामने भी निग्रहस्थान के निरूपण का प्रश्न आया ↓, किसी भी Jain Education International २६ १ तर्कशास्त्र पृ० ३३ । उपायहृदय पृ० १८ । २ Pre. Dinnag Buddhist Logic P. XXII. ३ “श्रास्तां तावदलाभादिरयमेव हि निग्रहः । न्यायेन विजिगीषूणां स्वाभिप्रायनिवर्त्तनम् ||”— न्यायवि० २. २१३ । " कथं तर्हि वादपरिसमाप्तिः ? निराकृतावस्थापित विपक्षस्वपक्षयेारेव जयेतरव्यवस्था नान्यथा । तदुक्तम् - स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः नाऽसाधनाङ्गवचनं नादोषोद्भावनं द्वयोः ॥ तथा तत्त्वार्थं श्लेाकेऽपि (पृ० २८१ ) - स्वपक्षसिद्धिपर्यन्ता शास्त्रीयार्थी विचारणा । वस्त्वाश्रयत्वता यद्वल्लीकिका विचारणा । " - श्रष्टस० पृ० ८७ । - प्रमेयक० पृ० २०३ A. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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