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________________ ११२ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० ५६. पं० १५छलादि के वर्जन का ही ऐकान्तिक उपदेश होता। यद्यपि बौद्ध तार्किकों ने शुरू में छलादि के समर्थन को ब्राह्मण परम्परा में से अपनाया पर आगे जाकर उनको इस समर्थन की अपने धर्म की प्रकृति के साथ विशेष असंगति दिखाई दी, जिससे उन्होंने उनके प्रयोग का स्पष्ट व सयुक्तिक निषेध ही किया। परन्तु इस बारे में जैन परम्परा की स्थिति निराली 5 रही। एक तो वह बौद्ध परम्परा की अपेक्षा त्याग और उदासीनता में विशेष प्रसिद्ध रही, दूसरे इसके निर्ग्रन्थ भिक्षुक शुरू में ब्राह्मण तार्किकों के सम्पर्क व संघर्ष में उतने न पाये जितने बौद्ध भिक्षुक, तीसरे उस परम्परा में संस्कृत भाषा तथा तदाश्रित विद्याओं का प्रवेश बहुत धीरे से और पीछे से हुआ। जब यह हुआ तब भी जैन परम्परा की उत्कट त्याग की प्रकृति ने उसके विद्वानों को छल आदि के प्रयोग के समर्थन से बिलकुल ही रोका। यही 10 कारण है कि, सब से प्राचीन और प्राथमिक जैन तर्क ग्रन्थों में छलादि के प्रयोग का स्पष्ट निषेध व परिहास? मात्र है। ऐसा होते हुए भी आगे जाकर जैन परम्परा को जब दूसरी परम्पराओं से बार बार वाद में भिड़ना पड़ा तब उसे अनुभव हुआ कि. छल आदि के प्रयोग का ऐकान्तिक निषेध व्यवहार्य नहीं। इसी अनुभव के कारण कुछ जैन तार्किको ने छल आदि के प्रयोग का आपवादिक रूप से अवस्था विशेष में समर्थन भी किया२ । इस तरह 15 अन्त में बौद्ध और जैन दोनो परम्पराएँ एक या दूसरे रूप से समान भूमिका पर भा गई। बौद्ध विद्वानों ने पहले छलादि के प्रयोग का समर्थन करके फिर उसका निषेध किया, जब कि जैन विद्वान पहले प्रात्यन्तिक विरोध करके अन्त में अंशत: उससे सहमत हए। यह ध्यान में रहे कि छलादि के आपवादिक प्रयोग का भी समर्थन श्वेताम्बर तालिकों ने किया है पर ऐसा समर्थन दिगम्बर तार्किकों के द्वारा किया हुआ देखने में नहीं आता। इस अन्तर के दो 2) कारण मालूम होते हैं। एक तो दिगम्बर परम्परा में प्रौत्सर्गिक त्याग अंश का ही मुख्य विधान है और दूसरा ग्यारहवीं शताब्दि के बाद भी जैसा श्वेताम्बर परम्परा में विविध प्रकृतिगामी साहित्य बना वैसा दिगम्बर परम्परा में नहीं हुआ। ब्राह्मण परम्परा का छलादि के प्रयोग का समर्थन तथा निषेध प्रथम से ही अधिकारी विशेषानुसार वैकल्पिक होने से उसको अपनी दृष्टि बदलने की ज़रूरत ही न हुई। 26 ५-अनुमान प्रयोग के पक्ष, हेतु, दृष्टान्त आदि अवयव हैं। उनमें आनेवाले वास्तविक दोषों का उद्घाटन करना दूषण है और उन अवयवों के निर्दोष होने पर भी उनमें असत् दोषों का प्रारोपण करना दूषणाभास है। ब्राह्मण परम्परा के मालिक ग्रन्थों में दोषों का, खासकर हेतु दोषों का हो वर्णन है। पक्ष, दृष्टान्त आदि के दोषों का स्पष्ट वैसा वर्णन नहीं है जैसा बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में दिङ्नाग से लेकर वर्णन है। दूषणाभास के छल, 30 जाति रूप से भेद तथा उनके प्रभेदों का जितना विस्तृत व स्पष्ट वर्णन प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में १ देखो सिद्धसेनकृत वादद्वात्रिंशिका । २ “अयमेव विधेयस्तत् तत्त्वज्ञ न तपस्विना। देशाद्यपेक्षयाऽन्योऽपि विशाय गुरुलाघवम् ।।"-यशो. वादद्वा० श्लो०८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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