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________________ पृ० ४५. पं० २०. 1 भाषाटिप्पणानि । • 1 अन्वय होने से ही व्यतिरेक फलित होता है चाहे वह किसी वस्तु . में फलित हो या अवस्तु अगर अन्वय न हो तो व्यतिरेक भी सम्भव नहीं । अन्वय और व्यतिरेक दोनों रूप परस्पराश्रित होने पर भी बौद्ध तार्किकों के मत से भिन्न ही हैं। अतएव वे व्यतिरेक की तरह अन्वय के ऊपर समान ही भार देते हैं । जैनपरम्परा ऐसा नहीं मानती । उसके अनुसार विपक्षव्यावृत्तिरूप व्यतिरेक ही हेतु का मुख्य स्वरूप है। जैनपरम्परा के अनुसार उसी एक 5 ही रूप के अन्वय या व्यतिरेक दो जुदे जुदे नाममात्र हैं। इसी सिद्धान्त का अनुसरण करके प्रा. हेमचन्द्र ने अन्त में कह दिया है कि 'सपक्ष एव सत्त्व' को अगर अन्वय कहते हो तब तो वह हमारा अभिप्रेत अन्यथानुपपत्तिरूप व्यतिरेक ही हुआ । सारांश यह है कि बौद्धतार्किक जिस तत्व को अन्वय और व्यतिरेक परस्पराश्रित रूपों में विभाजित करके दोनों ही रूपों का हेतुलक्षण में समावेश करते हैं, जैनतार्किक उसी तत्व को एकमात्र अन्यथानुपपत्ति या 10 व्यतिरेकरूप से स्वीकार करके उसकी दूसरी भावात्मक बाजू को लक्ष्य में नहीं लेवे । पृ० ४५. पं० १६. 'विरोधि तु' - व्याख्या - " स्वभावविरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र शीतस्पर्शो वह रिति । प्रतिषेध्यस्य शीतस्पर्शे यः स्वभावः तस्य विरुद्धो वह्निस्तस्य चेहोपलब्धि: । कार्यविरुद्धोपलब्धिर्यथा नेहा प्रतिबद्धसामर्थ्यानि शीतकारणानि सन्ति वह्नेरिति । प्रन्त्यदशा प्राप्तमेव कारणं कार्यं जनयति न सर्व ततो विशेषणोपादानम् । प्रतिषेधयानां शीतकारणानां कार्य 15 शीतं तस्य विरुद्धो वह्निः तस्येहापलब्धिः । कारणविरुद्धोपलब्धिर्यथा नास्य रोमहर्षादिविशेषाः सन्ति सन्निहितदहन विशेषत्वात् । प्रतिषेध्यानां रे।महर्षादिविशेषाणां कारणं शीतम्, तस्य विरुद्धो दहनविशेषस्तस्य चेहोपलब्धिः । व्यापकविरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र तुषारस्पर्शो दहनात् । प्रतिषेध्यस्य तुषार स्पर्शस्य व्यापकं शीतं तस्येह विरुद्धो दहनविशेषः तस्येहापलब्धिः । व्यापकविरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र तुषारस्पर्शो दहनात् । प्रतिषेध्यस्य तुषारस्पर्शस्य व्यापकं शीतं तस्येह 20 विरुद्धों दहनविशेषः तस्येहोपलब्धिः । स्वभावविरुद्ध कार्योपलब्धिर्यथा नात्र तुषारस्पर्शो धूमात् । प्रतिषेभ्यस्य तुषार स्पर्शस्य य: स्वभावः तस्य विरुद्धो वह्निः । तस्य कार्य धूम: तस्य चेहोपलब्धि: । कार्यविरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा नेहा प्रतिबद्धसामर्थ्यानि शीतकारणानि सन्ति धूमादिति । प्रतिषेध्यानां शीतकरणानां कार्य शीतं तस्य विरुद्धो वह्निः तस्य कार्य धूमः तस्येहोपलब्धिः । कारणविरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा न रोमहर्षादियुक्त पुरुषवानय प्रतिषेध्यानी 25 हि रोमहर्षादिविशेषाणां कारणं शीतं तस्य विरुद्धो वह्निः तस्य कार्य धूमः तस्येहोपलब्धि: । व्यापकविरुद्ध कार्योपलब्धिर्यथा नात्र तुषारस्पर्शो धूमात् । प्रतिषेध्यस्य तुषारस्पर्शस्य व्यापकं शीतं तस्य विरुद्धोऽग्निस्तस्य कार्य धूमस्तस्येह |पलब्धिः । " - तर्क भाषा परि० २ | प्रदेशो धूमात् । ८७ अ० १, आ० २. सू० १३-१७, पृ० ४५ पक्ष के सम्बन्ध में यहाँ चार बातों पर विचार है - १ -पक्ष का लक्षण – स्वरूप, २- लक्षणान्तर्गत विशेषण की व्यावृत्ति, ३-पक्ष के 30 आकार निर्देश, ४- उसके प्रकार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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