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________________ CE प्रमाणमीमांसायाः [पृ० ४४. पं०८पृ० ४४. पं० ८. 'तथा चेतनां विना-कार्यलिङ्गक अनुमान के मानने में किसी का मतभेद नहीं फिर भी उसके किसी किसी उदाहरण में मतभेद खासा है। 'जोवत् शरीरं सात्मकम्, प्राणादिमत्त्वात्' इस अनुमान को बौद्ध सदनुमान नहीं मानते, वे उसे मिथ्यानुमान मानकर हेत्वाभास में प्राणादिहेतु को गिनाते हैं-न्यायबि० ३.६६ । बौद्ध लोग इतर दार्शनिकों की 5 तरह शरीर में वर्तमान नित्य आत्मतत्त्व को नहीं मानते इसी से वे अन्य दार्शनिकसम्मत सात्मकत्व का प्राणादि द्वारा अनुमान नहीं मानते, जब कि वैशेषिक, नैयायिक, जैन आदि सभी पृथगात्मवादी दर्शन प्राणादि द्वारा शरीर में आत्मसिद्धि मानकर उसे सदनुमान ही मानते हैं। अतएव प्रारमवादी दार्शनिकों के लिये यह सिद्धान्त आवश्यक है कि सपक्ष वृत्तित्व रूप अन्वय को सद्हेतु का अनिवार्य रूप न मानना। केवल व्यतिरेकवाले अर्थात् 10 अन्वयशून्य लिङ्ग को भी वे अनुमितिप्रयोजक मानकर प्राणादिहेतु को सद्हेतु मानते हैं । इसका समर्थन नैयायिकों की तरह जैनतार्किकों ने बड़े विस्तार से किया है। .. प्रा० हेमचन्द्र भी उसी का अनुसरण करते हैं, और कहते हैं कि अन्वय के प्रभाव में भी हेत्वाभास नहीं होता इसलिये अन्वय को हेतु का रूप मानना न चाहिए। बौद्ध सम्मत खासकर धर्मकीर्शिनिर्दिष्ट अन्वयसन्देह का अनैकान्तिकप्रयोजकत्वरूप से खण्डन 15 करते हुए मा० हेमचन्द्र कहते हैं कि व्यतिरेकाभावमात्र को ही विरुद्ध और अनेकान्तिक दोनों का प्रयोजक मानना चाहिए। धर्मकीर्ति ने न्यायबिन्दु में व्यतिरेकाभाव के साथ अन्वयसन्देह को भी अनेकान्तिकता का प्रयोजक कहा है उसी का निषेध मा० हेमचन्द्र करते हैं। न्यायवादी धर्मकीर्ति के किसी उपलब्ध प्रन्थ में, जैसा प्रा० हेमचन्द्र लिखते हैं, देखा नहीं जाता कि व्यतिरेकाभाव ही दोनो विरुद्ध और अनैकान्तिक या दोनों प्रकार के अनेकान्तिक 20 का प्रयोजक हो। तब "न्यायवादिनापि व्यतिरेकामावादेव हेत्वाभासावुक्तो' यह प्रा० हेमचन्द्र का कथन प्रसङ्गत हो जाता है। धर्मकीर्ति के किसी अन्य में इस मा० हेमचन्द्रोक्त भाव का उल्लेख न मिले तो प्रा० हेमचन्द्र के इस कथन का अर्थ थोड़ी खींचातानी करके यही करना चाहिए कि न्यायवादी ने भी दो हेत्वाभास कहे हैं पर उनका प्रयोजकरूप जैसा हम मानते हैं वैसा व्यतिरेकाभाव ही माना जाय क्योंकि उस अंश में किसी का विवाद नहीं प्रत. 25 एव निर्विवादरूप से स्वीकृत व्यतिरेकाभाव को ही उक्त हेत्वाभासद्वय का प्रयोजक मानना, - अन्वयसन्देह को नहीं। ___यहाँ एक बात खास लिख देनी चाहिए। वह यह कि बौद्ध.तार्किक हेतु के त्रैरूप्य का समर्थन करते हुए अन्वय को प्रावश्यक इसलिए बतलाते हैं कि वे विपक्षासव. रूप व्यतिरेक का सम्भव 'सपक्ष एव सत्त्व' रूप अन्वय के बिना नहीं मानते। वे कहते हैं कि १ "केवलव्यतिरेकिणं त्वीदृशमात्मादिप्रसाधने परममस्त्रमुपेक्षितु न शक्नुम इत्ययथाभाष्यमपि व्याख्यानं श्रेयः।"-न्यायम० पृ० ५७८ । तात्पर्य० पृ० २८३ । कन्दली पृ० २०४ । २"अनयोरेव द्वयो रूपयाः संदेहेऽनैकान्तिकः ।"-न्यायबि०३.८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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