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________________ ५८ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० २५. पं० २४के अनुकूल युक्तिवाद का पता, उस पुराने समय के साहित्य में नहीं चलता। "बुद्ध ने प्राचीन अनित्यत्व की भावना के ऊपर इतना ज़ोर दिया कि जिससे आगे जाकर क्रमशः दो परिणाम दर्शनक्षेत्र में प्रकट हुए। एक तो यह कि अन्य सभी वाद उस अनित्यत्व अर्थात् क्षणिकत्ववाद के विरुद्ध कमर कसकर खड़े हुए और सभी ने अपना स्थापन अपने 5 ढङ्ग से करते हुए क्षणिकत्व के निरास का प्रबल प्रयत्न किया। दूसरा परिणाम यह पाया कि खुद बौद्ध परम्परा में क्षणिकत्ववाद जो मूल में वैराग्यपोषक भावनारूप होने से एक नैतिक या चारित्रीय वस्तुस्वरूप था उसने तत्त्वज्ञान का पूरा व्यापकरूप धारण किया। और वह उसके समर्थक तथा विरोधियों की दृष्टि में अन्य तात्त्विक विषयों की तरह तात्त्विकरूप से ही चिन्ता का विषय बन गया। 10 बुद्ध, महावीर के समय से लेकर अनेक शताब्दियों तक के दार्शनिक साहित्य में हम देखते हैं कि प्रत्येक वाद की सत्यता की कसौटी एकमात्र बन्धमोक्ष-व्यवस्था और कर्म-फल के कर्तृत्व-भोक्तृत्व की व्यवस्था रही है। केवल अनित्यत्ववादी बौद्धों की अपने पक्ष की यथार्थता के बारे में दलील यही रही कि आत्मा आदि को केवल नित्य मानने से न तो बन्ध मोक्ष की व्यवस्था ही घट सकती है और न कर्म-फल के कर्तृत्व-भोक्तृत्व का सामानाधि15 करण्य ही। केवल नित्यत्ववादी औपनिषद आदि दार्शनिकों (ब्र० शाङ्करभा० २. २. १६) की भी बौद्ध वाद के विरुद्ध यही दलील रही। परिणामिनित्यत्ववादी जैनदर्शन ने भी केवल नित्यत्व और केवल अनित्यत्व वाद के विरुद्ध यही कहा कि आत्मा केवल नित्य या केवल अनित्य-मात्र हो तो संसार-मोक्ष की व्यवस्था, कर्म के कर्ता को ही कर्मफल मिलने की व्यवस्था, मोक्षोपाय रूप से दान आदि शुभ कर्म का विधान और दीक्षा आदि का उपादान 20 ये सब घट नहीं सकते२ । भारतीय दर्शनों की तात्त्विक चिन्ता का उत्थान और खास कर उसका पोषण एवं विकास कर्मसिद्धान्त एवं संसारनिवृत्ति तथा मोक्षप्राप्ति की भावना में से फलित हुमा है। इससे शुरू में यह स्वाभाविक था कि हर एक दर्शन अपने वाद की यथार्थता में और दूसरे दर्शनों के वाद की अयथार्थता में उन्हीं कर्मसिद्धान्त आदि की दुहाई देवें। पर जैसे-जैसे 25 अध्यात्ममूलक इस दार्शनिक क्षेत्र में तर्कवाद का प्रवेश अधिकाधिक होने लगा और वह क्रमश: यहाँ तक बढ़ा कि शुद्ध तर्कवाद के सामने आध्यात्मिकवाद एक तरह से गौण सा हो गया तब केवल नित्यत्वादि उक्त वादों की सत्यता की कसौटी भी अन्य हो गई। तर्क ने कहा कि जो अर्थक्रियाकारी है वही वस्तु सत् हो सकती है दूसरी नहीं । अर्थक्रिया १"तदेवं सत्त्वभेदे कृतहानमकृताभ्यागमः प्रसज्यते--सति च सत्वोत्पादे सत्त्वनिरोधे च अकर्मनिमित्तः सत्त्वसर्गः प्राप्नोति तत्र मुक्त्यर्थो ब्रह्मचर्यवासो न स्यात् ।"-न्यायभा०३ १.४। २“दव्वट्रियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयए णियमा। अरणो करेइ अण्णो परिभुजह पजयणयस्स ॥"-सन्मति०१.५२। "न बन्धमोक्षौ क्षणिकैकसंस्थौ न संवृतिः सापि मृषास्वभावा। मुख्याहते गौणविधिर्न दृष्टो विभ्रान्तदृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥"-युक्त्य० का० १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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