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________________ पृ. २५. पं० २४.] भाषाटिप्पणानि। जानने योग्य है। न्याय-वैशेषिक प्रादि दर्शन भेदवादी होने से प्रथम से ही आज तक गुण, कर्म आदि का द्रव्य से भेद मानते हैं। अभेदवादी सांख्य, वेदान्तादि उनका द्रव्य से अभेद मानते आये हैं। ये भेदाभेद के पत्त बहुत पुराने हैं क्योंकि खुद महाभाष्यकार पतञ्जलि इस बारे में मनोरजक और विशद चर्चा शुरू करते हैं। वे प्रश्न उठाते हैं कि द्रव्य, शब्द, स्पर्श प्रादि गुणों से अन्य है या अनन्य १। दोनों पक्षों को स्पष्ट करके फिर वे अन्त । में भेदपक्ष का समर्थन करते हैं । जानने योग्य खास बात तो यह है कि गुण-द्रव्य या गुण-पर्याय के जिस भेदाभेद की स्थापना एवं समर्थन के वास्ते सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि जैन तार्किकों ने अपनी कृतियों में खासा पुरुषार्थ किया है उसी भेदाभेदवाद का समर्थन मीमांसकधुरीण कुमारिल ने भी बड़ी स्पष्टता एवं तर्कवाद से किया है-श्लोकवा० आकृ० श्लो० ४-६४; वन० श्लो० २१-८०। 10 प्रा. हेमचन्द्र को द्रव्य-पर्याय का पारस्परिक भेदाभेद वाद ही सम्मत है जैसा अन्य जैनाचार्यों को। पृ० २५. पं० १. 'पूर्वोत्तरविवर्त'-तुलना-"परापरविवर्त्तव्यापिद्रव्यमूर्खता मृदिव स्थासादिषु ।'-परी० ४.५। प्रमाणन० ५. ५ । पृ० २५. पं० ८. 'दाहिं'-व्याख्या "द्वाभ्यामपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां प्रणीतं 15 शाखम् उलूकन वैशेषिकशास्त्रप्रणेत्रा द्रव्यगुणादेः पदार्थषट्कस्य नित्यानित्यैकान्तरूपस्य तत्र प्रतिपादनात्...ततश्चैतत् शास्त्रं तथापि मिथ्यात्वम् तत्प्रदर्शितपदार्थषट्कस्य प्रमाणबाधित. त्वात्...जं सविसय इत्यादिना गाथापश्चार्द्धन हेतुमाह-यस्मात् स्वविषयप्रधानताव्यवस्थिताऽन्योन्यनिरपेक्षोभयनयाश्रितं तत्, अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितत्वस्य मिथ्यात्वादिनाऽविना. भूतत्वात् ।"-सन्मतिटी० पृ. ६५६. ७०४ । पृ० २५. पं० २४. 'तत्र न द्रव्यैकरूपों'-भारतीय दर्शनों में केवल नित्यत्व, केवल अनित्यत्व, नित्यानित्य-उभय, और परिणामिनित्यत्व इन चारों वादों के मूल भगवान महावीर और बुद्ध के पहिले भी देखे जाते हैं पर इन वादों की विशेष स्पष्ट स्थापना और उस स्थापना 20 १ "किं पुनद्रव्यं के पुनर्गुणाः। शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा गुणास्ततोऽन्यद् द्रव्यम् । किं पुनरन्यच्छब्दादिभ्यो द्रव्यमाहोस्विदनन्यत् । गुणस्यायं भावात् द्रव्ये शब्दनिवेशं कुर्वन् ख्यापयत्यन्यच्छब्दादिभ्यो द्रव्यमिति। अनन्यच्छब्दादिभ्यो द्रव्यम्। न ह्यन्यदुपलभ्यते। पशोः खल्वपि विशसितस्यापर्णशते न्यस्तस्य नान्यच्छन्दादिभ्य उपलभ्यते। अन्यच्छब्दादिभ्यो द्रव्यम् । तत् त्वनुमानगम्यम् । तद्यथा । ओषधिवनस्पतीनां वृद्धिहासौ। ज्योतिषां गतिरिति । कोसावनुमानः । इह समाने वर्मणि परिणाहे च अन्यत्तुलानं भवति लोहस्य अन्यत् कार्पासानां यत्कृतो विशेषस्तद् द्रव्यम् । तथा कश्चिदेकेनैव प्रहारेण व्यपवर्ग करोति कश्चित् द्वाभ्यामपि न करोति । यत्कृतो विशेषस्तद् द्रव्यम् । अथवा यस्य गुणान्तरेष्वपि प्रादुर्भवत्सु तत्त्वं न विहन्यते तद् द्रव्यम् । किं पुनस्तत्त्वम् । तंभावस्तत्त्वम् । तद्यथा। आमलकादीनां फलानां रक्तादयः पीतादयश्च गुणाः प्रादुर्भवन्ति । अामलकं बदरमित्येव भवति । अन्वर्थ खल निर्वचनं गुणसंद्रावो द्रव्यमिति ।"-पात. महा०५.१. ११६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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