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पृ० २४. पं० ३०.] भाषाटिप्पणानि।
५५ यद्यपि जैन साहित्य में भी करीब-करीब उन्हीं सभी अर्थों में प्रयुक्त द्रव्य शब्द देखा जाता है तथापि द्रव्य शब्द की जैन प्रयोग परिपाटी अनेक अंशों में अन्य सब शास्त्रों से भिन्न भी है। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि निक्षेप ( तत्त्वार्थ० १.५ ) प्रसङ्ग में; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि प्रसङ्ग में ( भगः श० २. उ० १); द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकरूप नय के प्रसङ्ग में ( तत्त्वार्थभा. ५. ३१ ); द्रव्याचार्य ( पञ्चाशक ६ ), भावाचार्य आदि प्रसङ्ग में; द्रव्यकर्म, भाव । कर्म आदि प्रसङ्ग में प्रयुक्त होनेवाला द्रव्य शब्द जैन परिभाषा के अनुसार खास-खास अर्थ का बोधक है जो अर्थ तद्धित प्रकरणसाधित भव्य-योग्य अर्थवाले द्रव्य शब्द के बहुत नज़दीक हैं अर्थात् वे सभी अर्थ भव्य अर्थ के भिन्न-भिन्न रूपान्तर हैं। विश्व के मालिक पदार्थों के अर्थ में भी द्रव्य शब्द जैन दर्शन में पाया जाता है जैसे जीव, पुद्गल आदि छः द्रव्य ।
न्याय वैशेषिक आदि दर्शनों में ( वै० सू० १. १. १५ ) द्रव्य शब्द गुण-कर्माधार अर्थ 10 में प्रसिद्ध है जैसे पृथ्वी जल आदि नव द्रव्य । इसी अर्थ को लेकर भी उत्तराध्ययन (२८.६) जैसे प्राचीन आगम में द्रव्य शब्द जैन दर्शन सम्मत छः द्रव्यों में लागू किया गया देखा जाता है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने ( पात. महा० पृ० ५८) अनेक भिन्न-भिन्न स्थलों में द्रव्य शब्द के अर्थ की चर्चा की है। उन्होंने एक जगह कहा है कि घड़े को तोड़कर कुण्डी
और कुण्डी को तोड़कर घड़ा बनाया जाता है एवं कटक, कुण्डल आदि भिन्न-भिन्न प्रलङ्कार 15 एक दूसरे को तोड़कर एक दूसरे के बदले में बनाये जाते हैं फिर भी उन सब भिन्न-भिन्नकालीन भिन्न-भिन्न प्राकृतियों में जो मिट्टी या सुवर्ण नामक तत्त्व कायम रहता है वही अनेक भिन्न-भिन्न आकारों में स्थिर रहनेवाला तत्व द्रव्य कहलाता है। द्रव्य शब्द की यह व्याख्या योगसूत्र के व्यासभाष्य में ( ३. १३ ) भी ज्यों की त्यों है और मीमांसक कुमारिल ने भी वही (श्लोकवा० वन० श्लो० २१-२२ ) व्याख्या ली है। पतञ्जलि ने दूसरी जगह ( पात. 20 महा० ४. १. ३, ५ १. ११६ ) गुण समुदाय या गुण सन्द्राव को द्रव्य कहा है। यह व्याख्या बौद्ध प्रक्रिया में विशेष सङ्गत है। जुदे-जुदे गुणों के प्रादुर्भाव होते रहने पर भी अर्थात् जैन परिभाषा के अनुसार पर्यायों के नवनवोत्पाद होते रहने पर भी जिसके मालिकत्व का नाश नहीं होता वह द्रव्य ऐसी भी संक्षिप्त व्याख्या पतञ्जलि के महाभाष्य ( ५. १. ११६ ) में है। महाभाष्यप्रसिद्ध और बाद के व्यासभाष्य, श्लोकवातिक प्रादि में समर्थित द्रव्य शब्द की 25 उक्त सभी व्याख्याएँ जैन परम्परा में उमास्वाति के सूत्र और भाष्य में ( ५. २६, ३०, ३७ ) सबसे पहिले संगृहीत देखी जाती हैं। जिनभद्र तमाश्रमण ने तो ( विशेषा० गा० २८) अपने भाष्य में अपने समय तक प्रचलित सभी व्याख्याओं का संग्रह करके द्रव्य शब्द का निर्वचन बतलाया है।
अकलङ्क के ( लघी० २. १ ) ही शब्दों में विषय का स्वरूप बतलाते हुए प्रा० हेमचन्द्र 30 ने द्रव्य शब्द का प्रयोग करके उसका आगमप्रसिद्ध और व्याकरण तथा दर्शनान्तरसम्मत ध्रुवभाव ( शाश्वत, स्थिर ) अर्थ ही बतलाया है। ऐसा अर्थ बतलाते समय उसकी जो व्युत्पत्ति दिखाई है वह कृत् प्रकरणानुसारी अर्थात् दु धातु + य प्रत्यय जनित है।
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