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________________ ५४ प्रमाणमीमांसायाः पृ० २४. पं० २८ का अपने ही पक्ष में सम्भव यह सब बतलाया है। वस्तु का स्वरूप द्रव्य-पर्यायत्मिकत्व, नित्यानित्यत्व या सदसदात्मकत्वादिरूप जो आगमों में विशेष युक्ति, हेतु या कसौटी के सिवाय वर्णित पाया जाता है (भग० श. १. उ० ३; श० ६. उ० ३३ ) उसी को प्रा० हेमचन्द्र ने बतलाया है, पर तर्क और हेतुपूर्वक । तर्कयुग में वस्तुस्वरूप की निश्चायक जो विविध कसौटियाँ मानी जाती थी जैसे कि न्यायसम्मत-सत्ता योगरूप सत्त्व, सांख्यसम्मत प्रमाण विषयत्वरूप सत्व, तथा बौद्धसम्मत-अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व इत्यादि--उनमें से अन्तिम अर्थात् अर्थक्रियाकारित्व को ही प्रा० हेमचन्द्र कसौटी रूप से स्वीकार करते हैं जो सम्भवतः पहिले पहिल बौद्ध तार्किकों के द्वारा ( प्रमाणवा० ३. ३ ) ही उद्भावित हुई जान पड़ती है। जिस अर्थक्रियाकारित्व की कसौटी को लागू करके बौद्ध तार्किकों ने वस्तुमात्र 10 में स्वाभिमत क्षणिकत्व सिद्ध किया है और जिस कसौटी के द्वारा ही उन्होंने केवल नित्यवाद ( तत्त्वसं ० का० ३६४ से ) और जैन सम्मत नित्यानित्यात्मक वादादि का ( तत्त्वसं० का. १७३८ से ) विकट तर्क जाल से खण्डन किया है, प्रा. हेमचन्द्र ने उसी कसौटी को अपने पक्ष में लागू करके जैन सम्मत नित्यानित्यात्मकत्व अर्थात् द्रव्यपर्यायात्मकत्व वाद का सयुक्तिक समर्थन किया है और वेदान्त आदि के केवल नित्यवाद तथा बौद्धों के केवल अनि15 त्यत्व वाद का उसी कसौटी के द्वारा प्रबल खण्डन भी किया है। पृ०. २४. पं० २६ 'लाघवमपि'-तुलना-न्यायबि० टी० १. १७ । . पृ०.२४. पं० ३०. 'द्रवति'-प्राकृत-पाली दव-दब्ब शब्द और संस्कृत द्रव्य शब्द बहुत प्राचीन है। लोकव्यवहार में तथा काव्य, व्याकरण, आयुर्वेद, दर्शन आदि नाना शास्त्रों में भिन्न-भिन्न अर्थों में उसका प्रयोग भी बहुत प्राचीन एवं रूंढ़ जान पड़ता है। 20 उसके प्रयोग-प्रचार की व्यापकता को देखकर पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में उसे स्थान देकर दो प्रकार से उसकी व्युत्पत्ति बतलाई है जिसका अनुकरण पिछले सभी वैयाकरणों ने किया है। तद्धित प्रकरण में द्रव्य शब्द के साधक खास जो दो सूत्र (५. ३. १०४; ४. ३ १६१ ) बनाये गये हैं उनके अलावा द्रव्य शब्द सिद्धि का एक तीसरा भी प्रकार कृत् प्रकरण में है। तद्धित के अनुसार पहली व्युत्पत्ति यह है कि द्रु= वृक्ष या काष्ठ + य = विकार या 25 अवयव अर्थात् वृक्ष या काष्ठ का विकार तथा अवयव द्रव्य। दूसरी व्युत्पत्ति यों है-P= काष्ठ + य = तुल्ये अर्थात् जैसे सीधो और साफ़ सुथरी लकड़ी बनाने पर इष्ट आकार धारण कर सकती है वैसे ही जो राजपुत्र आदि शिक्षा दिये जाने पर राज योग्य गुण धारण करने का पात्र है वह भावी गुणों की योग्यता के कारण द्रव्य कहलाता है। इसी प्रकार अनेक उपकारों की योग्यता रखने के कारण धन भी द्रव्य कहा जाता है। कृदन्त प्रकरण के 30 अनुसार गति-प्राप्ति अर्थवाले द्रु धातु से कर्मार्थक य प्रत्यय आने पर भी द्रव्य शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ होता है प्राप्ति योग्य अर्थात् जिसे अनेक अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं । वहाँ व्याकरण के नियमानुसार उक्त तीन प्रकार की व्युत्पत्ति में लोक-शास्त्र प्रसिद्ध द्रव्य शब्द के सभी अर्थों का किसी न किसी प्रकार से समावेश हो ही जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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