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________________ पृ० १७.५० ५.] भाषाटिप्पणानि । ४१ - यहाँ एक प्रश्न होता है कि पूज्यपादादि प्राचीन जैनाचार्य तथा वाचस्पति, जयन्त आदि अन्य विद्वानों ने जब इन्द्रियों की सांख्यसम्मत ग्यारह संख्या का बलपूर्वक खण्डन किया है तब उन्होंने या और किसी ने बौद्ध अभिधर्म में प्रसिद्ध इन्द्रियों की बाईस संख्या का प्रतिषेध या उल्लेख तक क्यों नहीं किया ?। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि उन्होंने किसी संस्कृत अभिधर्म ग्रन्थ को भी न देखा हो। जान पड़ता है बौद्ध अभिधर्मपरम्परा में 5 प्रत्येक मानसशक्ति का इन्द्रियपद से निर्देश करने की साधारण प्रथा है ऐसा विचार करके ही उन्होंने उस परम्परा का उल्लेख या खण्डन नहीं किया है। छः इन्द्रियों के शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श आदि प्रतिनियत विषय ग्राह्य हैं। इसमें तो सभी दर्शन एकमत हैं पर न्याय-वैशेषिक का 'इन्द्रियों के द्रव्यग्राहकत्व के सम्बन्ध में अन्य सबके साथ मतभेद है। इतर सभी दर्शन इन्द्रियों को गुणग्राहक मानते हुए भी 10 गुण-द्रव्य का अभेद होने के कारण छहों इन्द्रियों को द्रव्यग्राहक भी मानते हैं जब कि न्यायवैशेषिक और पूर्वमीमांसक वैसा नहीं मानते। वे सिर्फ नेत्र, स्पर्शन और मन को द्रव्यग्राहक कहते हैं अन्य को नहीं ( मुक्ता० का० ५३-५६ )। इसी मतभेद को आ० हेमचन्द्र ने स्पर्श आदि शब्दों की कर्म-भावप्रधान व्युत्पत्ति बतलाकर व्यक्त किया है और साथ ही अपने पूर्वगामी जैनाचार्यों का पदानुगमन भी। इन्द्रिय-एकत्व और नानात्ववाद की चर्चा दर्शनपरम्पराओं में बहुत पुरानी हैन्यायसू० ३. १.५२। कोई इन्द्रिय को एक ही मानकर नाना स्थानों के द्वारा उसके माना कार्यों का समर्थन करता है, जब कि सभी इन्द्रियनानात्ववादी उस मत का खण्डन करके सिर्फ नानात्ववाद का ही समर्थन करते हैं। प्रा० हेमचन्द्र ने इस सम्बन्ध में जैन प्रक्रियासुलभ अनेकान्त दृष्टि का प्राश्रय लेकर इन्द्रियों में पारस्परिक एकत्व-नानात्व उभयवाद का 20 समन्वय करके प्राचीन जैनाचार्यों का ही अनुसरण किया है और प्रत्येक एकान्तवाद में परस्पर दिये गये दूषणों का परिहार भी किया है। ___इन्द्रियों के स्वामित्व की चिन्ता भी दर्शनों का एक खास विषय है। पर इस सम्बन्ध में जितनी अधिक और विस्तृत चर्चा जैनदर्शन में पाई जाती है वैसी अन्य दर्शनों में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। वह बौद्ध दर्शन में है पर जैनदर्शन के मुकाबिले में प्रल्पमात्र 25 है। स्वामित्व की इस चर्चा को प्रा. हेमचन्द्र ने एकादश-अङ्गावलम्बी तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य में से अक्षरश: लेकर इस सम्बन्ध में सारा जैनमन्तव्य प्रदर्शित किया है। पृ०. १७. पं० ५. 'तत्र स्पर्शनेन्द्रियम्'-तुलना-“वाय्वन्तानामेकम् ।”-तत्त्वार्थ० २. २३ । 15 १ "कतमानि द्वाविंशतिः। चक्षुरिन्द्रियं श्रोत्रेन्द्रियं प्राणेन्द्रियं जिह्वन्द्रियं कायेन्द्रियं मन. इन्द्रियं स्त्रीन्द्रियं पुरुषेन्द्रियं जीवितेन्द्रियं सुखेन्द्रियं दुःखेन्द्रियं सौमनस्येन्द्रियं दौर्मनस्येन्द्रियं उपेक्षेन्द्रिय श्रद्धन्द्रियं वोयेन्द्रियं स्मृतीन्द्रियं समाधीन्द्रियं प्रज्ञन्द्रियं अनाज्ञातमाशास्यामीन्द्रियं आज्ञन्द्रियं आशातावीन्द्रियम् ।"-स्फुटा० पृ० ६५। विसुद्धि० पृ० ४६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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