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पृ० १६. पं० १७. ]
भाषाटिप्पणानि ।
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तथापि सम्भव है पाणिनीय सूत्रों की अन्य कोई प्राचीन व्याख्या या व्याख्याओं में उस सूत्र पर कुछ व्याख्या लिखी गई हो । जो कुछ हो पर यह स्पष्ट जान पड़ता है कि प्राचीन बौद्ध और जैन दार्शनिक ग्रन्थों में पाई जानेवाली पाणिनीय सूत्रोक्त इन्द्रियपद की निरुक्ति किसी न किसी प्रकार से पाणिनीय व्याकरण की परम्परा के अभ्यास में से ही उक्त बौद्ध-जैन ग्रन्थों में दाखिल हुई है। विशुद्धिमार्ग' जैसे प्रतिष्ठित बौद्ध और तत्त्वार्थ भाष्य २ जैसे 5 प्रतिष्ठित जैन दार्शनिक ग्रन्थ में एक बार स्थान प्राप्त कर लेने पर तो फिर वह निरुक्ति उत्तरवर्ती सभी बौद्ध-जैन महत्वपूर्ण दर्शन ग्रन्थों का विषय बन गई है।
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इस इन्द्रिय पद की निरुक्ति के इतिहास में मुख्यतया दो बातें ख़ास ध्यान देने योग्य हैं । एक तो यह कि बौद्ध वैयाकरण जो स्वतन्त्र हैं और जो पाणिनीय के व्याख्याकार हैं उन्होंने उस निरुक्ति को अपने-अपने ग्रन्थों में कुछ विस्तार से स्थान दिया है। और आ० हेमचन्द्र ३ जैसे स्वतन्त्र जैन वैयाकरण ने भी अपने व्याकरणसूत्र तथा वृत्ति में पूरे विस्तार से उसे स्थान दिया है। दूसरी बात यह कि पाणिनीय सूत्रों के बहुत ही अर्वाचीन व्याख्याग्रन्थों के अलावा और किसी वैदिक दर्शन के ग्रन्थ में वह इन्द्रियपद की निरुक्ति पाई नहीं जाती जैसी कि बौद्ध-जैन दर्शन ग्रन्थों में पाई जाती है । जान पड़ता है, जैसा अनेक स्थलों में हुआ है वैसे ही, इस सम्बन्ध में असल में शाब्दिकों की शब्दनिरुक्ति बौद्ध-जैन दर्शन 15 ग्रन्थों में स्थान पाकर फिर वह दार्शनिकों की चिन्ता का विषय भी बन गई है ।
मावृत्ति जैसे प्राचीन वैदिक दर्शनग्रन्थ में इन्द्रिय पद की निरुक्ति है पर वह पाणिनीय सूत्र और बौद्ध-जैन दर्शन ग्रन्थों में लभ्य निरुक्ति से बिलकुल भिन्न और विलक्षण है । जान पड़ता है पुराने समय में शब्दों की व्युत्पत्ति या निरुक्ति बतलाना यह एक ऐसा आवश्यक कर्तव्य समझा जाता था कि जिसकी उपेक्षा कोई बुद्धिमान् लेखक नहीं करता 20 था । व्युत्पत्ति और निरुक्ति बतलाने में ग्रन्थकार अपनी स्वतन्त्र कल्पना का भी पूरा उपयोग करते थे । यह वस्तुस्थिति केवल प्राकृत- पाली शब्दों तक ही परिमित न थी वह संस्कृत शब्द में भी थी । इन्द्रियपद की निरुक्ति इसी का एक उदाहरण है 1
१" को पन ने इन्द्रियट्ठो नामाति ? । इन्दलिङ्गट्ठो इन्द्रियट्ठो; इन्ददेसितट्ठो इन्द्रियट्ठो; इन्ददिट्ठट्ठो इन्द्रियो इन्दसि इन्द्रियट्ठो; इन्दजुट्ठो इन्द्रियट्ठो; सो सन्चोपि इध यथायोगं युज्जति । भगवा हि सम्मासंबुद्धो पर मिस्सरियभावतो इन्दो, कुसलाकुसलं च कम्मं कम्मेसु कस्सचि इस्सरियाभावतो । तेनेवेत्थ कम्मसञ्जनितानि ताव इन्द्रियानि कुसला कुसलकम्मं उल्लिङ्गेति । तेन च सिट्ठानीति इन्दलिङ्गट्ठेन इन्दसिट्ठेन च इन्द्रियानि । सब्बानेव पनेतानि भगवता यथा भूततो पकासितानि अभिसम्बुद्धानि चाति इन्ददेसितट्ठेन इन्ददिट्ठेन च इन्द्रियानि । तेनेव भगवता मुनीन्देन कानिचि गोचरासेवनाय, कानिचि भावना - सेवनाय सेवितानीति इन्दजुट्ठेनापि इन्द्रियानि । अपि च श्राधिपच्चसंखातेन इस्सरियट्ठेनापि एतानि इन्द्रियानि । चक्खुविज्ञाणादिप्पवत्तियं हि चक्खादीनं सिद्धं आधिपच्चं, तस्मिं तिक्खे तिक्खत्ता, मन्दे मन्दत्ता ति । अयं तावेत्थ अत्थतो विनिच्छयो ।” विसुद्धि० पृ० ४६१ ।
२ तत्त्वार्थभा० २. १५ । सर्वार्थ० १. १४ ।
३ " इन्द्रियम् । " - है मश० ७. १. १७४ |
४ "इन् इति विषयाणां नाम, तानिनः विषयान् प्रति द्रवन्तीति इन्द्रियाणि । ” - माठर० का० २६ ।
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