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________________ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० १५. पं० ११होने से दूसरी परम्परा का विकास हुआ। विकास के जन्मदाता सम्भवतः क्षमाश्रमण जिनभद्र हैं। विकास की यथार्थता देखकर पीछे से सभी ने उसी मन्तव्य को अपनाया। फिर भी पहली परम्परा शब्दों में तो प्राचीन ग्रन्थों में सुरक्षित रह ही गई। आश्चर्य तो यह है कि अकलङ्क, विद्यानन्द आदि जैसे सूक्ष्मप्रज्ञ दिगम्बराचार्यों 5 को स्वतन्त्र रूप से भी पहली परम्परा के दोष का भान क्यों नहीं हुआ है। उन्होंने उसमें शङ्का क्यों नहीं उठाई ?। पृ०. १५. पं० ११. 'मनःपर्याय:'-तुलना-"प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् ॥"-योगसू० ३.१६ । योगभा० ३. १६ । __ आकंखेय्य चे भिक्खवे भिक्खु परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानेय्यं 10 सरागं वा चित्तं सरागं चित्तंऽति पजानेय्यं, वीतरागं...सदोसं...वीतदोसं...समाहं...वीत मोहं...सवित्तं...विक्खित्तं...महग्गतं.. अमहग्गतं...सउत्तरं...अनुत्तरं...समाहितं...असमाहितं...विमुत्तं...अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तंति पजानेय्यंऽति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी...सुमागारानं ।"-मज्झिम० १ ६.२ । पृ०. १५. पं० २७. 'विषयकृतश्च'-तुलना-"रूपिष्ववधेः। तदनन्तभागे मन:पर्याय. 15 स्य ।"-तत्त्वार्थ० १. २८, २६ । पृ० १६. पं० २. 'सांव्यवहारिकम्'-देखो १. १. ६-१० का टिप्पण पृ० १६ । पृ०. १६. पं० ८. 'समीचीन'-तुलना-प्रमेयर० २. ५ । पृ०. १६: पं० १०. 'इन्द्रियप्राधान्याद'-तुलना-"इन्द्रियज्ञानम् । स्वविषयानन्तरविषय. सहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन जनितं तन्मनोविज्ञानम् ।"-न्यायबि० १.८, ६ । __ पृ०. १६. पं० १२. 'ननु स्वसंवेदन'-तुलना-प्रमेयर० २.५ । पृ०. १६. पं० १७. 'स्पर्श'-इन्द्रियनिरूपण प्रसङ्ग में मुख्यतया नीचे लिखी बातों पर दर्शनशास्त्रों में विचार पाया जाता है इन्द्रिय पद की निरुक्ति, इन्द्रियों का कारण, उनकी संख्या, उनके विषय, उनके आकार, उनका पारस्परिक भेदाभेद, उनके प्रकार तथा द्रव्य-गुणग्राहित्वविवेक इत्यादि । 25 अभी तक जो कुछ देखने में आया उससे ज्ञात होता है कि इन्द्रियपद की निरुक्ति जो सबसे पुरानी लिपिबद्ध है वह पाणिनि के सूत्र में ही है। यद्यपि इस निरुक्तिवाले पाणिनीय सूत्र के ऊपर कोई भाष्यांश पतञ्जलि के उपलब्ध महाभाष्य में दृष्टिगोचर नहीं होता १" इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा ।"-५. २. ६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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