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________________ सम्पादन विषयक वक्तव्य १. पारम्भ-पर्यवसान सिंघी जैन-ग्रन्थमाला में प्रकाशित होनेवाला प्रमाणमीमांसा का प्रस्तुत संस्करण तीसरा है। बहुत वर्ष पहले अहमदाबाद से और पीछे पूना से, इस प्रकार दो बार, प्रमाणमीमांसा पहले छप चुकी है। लगभग पचीस वर्ष पूर्व गुजरात से आगरा की ओर आते हुए बीच में पालनपुर में मेरे परिचित मुनि श्री मोहनविजयजी ने, जो कभी काशी में रहे थे, मुझसे अतिशीघ्र प्रमाणमीमांसा पढ़ ली। वह मेरा प्रमाणमीमांसा का प्रथम परिचय था। उस समय मेरे मन पर एक प्रबल संस्कार पड़ा कि सचमुच प्रमाणमीमांसा हेमचन्द्र के अनुरूप हो कृति है और उसका संपादन भी वैसा ही होना चाहिए । पूना से प्रकाशित संस्करण पहले के संस्करण से कुछ ठीक था, पर, प्रथम के वे दोनों संस्करण अत्यन्त ही दुर्लभ हो गए थे। इधर ई० स० १९३३ की जुलाई में काशी आना हुआ और १९३५ में हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विभाग के जैन अभ्यासक्रम का पुनर्निर्माण तथा गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, बनारस में जैन परीक्षा का प्रवेश हुआ। बंगाल संस्कृत एसोसिएशन कलकत्ता की संस्कृत परीक्षा में तो प्रमाणमीमांसा बहुत पहले से ही नियत थी। काशी में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा गवर्मेण्ट संस्कृत कालेज इन दोनों के अभ्यास-क्रम में भी प्रमाणमीमांसा रखी गई। इस प्रकार एक ओर विद्यार्थियों के लिए प्रमाणमीमांसा की नितांत आवश्यकता और दूसरी तरफ पुराने संस्करणों की अत्यन्त दुर्लभता ने मेरे मन में पड़े हुए पुराने संस्कार को जगा दिया। शास्त्रसमृद्ध भूमि पर तो बैठा ही था। हेमचन्द्रसूरि के ग्रन्थों के अनन्य उपासक रूप से प्रमाणमीमांसा के संशोधन की ओर मन भी था और फिर मेरे मन के सहकारी भी मुझे मिल गये । यह सब देख कर निर्णय कर लिया कि अब काम शुरू कर दिया जाय । छुट्टी होते ही प्रमाणमीमांसा के जन्म और रक्षणधाम पाटन में मेरे साथी और मित्र श्रीदलसुखभाई के साथ पहुँचा और १९३५ के मई की पहली तारीख को काम का श्रीगणेश हुआ। अहमदाबाद स्थित डेला उपाश्रय के भाण्डार की काराज पर लिखी हुई प्रमाणमीमांसा की प्रति साथ ले गया था। पाटन में तो सौजन्यमूर्ति मुनि श्री पुण्यविजयजी की बदौलत सब कुछ सुलभ ही था। उनके पास जेसलमेर के भाण्डार की ताड़पत्रीय प्रति की फोटो थी जिसमें वृत्ति सहित सूत्रों के अतिरिक्त अलग सूत्रपाठ भी था। पाटन स्थित संघ के भाण्डार में से एक और भी कागज पर लिखा हुआ मूल सूत्रपाठ मिल गया। पूनावाली छपी हुई नकल तो थी ही। इस तरह दो केवल मूल सूत्रपाठ की और दो वृत्तिसहित की कुल चार लिखित प्रतियों और मुद्रित पूनावाली प्रति के आधार पर पाठान्तर लेने का काम पाटन में ही तीन सप्ताह में समाप्त हुआ। जून मास में अहमदाबाद में ही बैठकर उन लिए हुए पाठान्तरों का विचारपूर्वक स्थान निर्णीत करके यथासम्भव मूलसूत्र और वृत्ति को विशेष शुद्ध करने कातथा ग्रन्थकार के असली लेख के विशेष समीप पहुँचने का प्रयत्न किया गया। उसी साल जुलाई-अगस्त से फिर काशी में वह काम प्रारम्भ किया। मूलग्रन्थ की शुद्धि, प्राप्त टिप्पणों का यथास्थान विन्यास आदि प्रारम्भिक काम तो हो चुके थे। अब पुरानी भावना के अनुसार तथा प्राप्त सामग्री के अनुरूप उस पर यथासम्भव विशेष संस्कार करने का प्रश्न था। इधर स्याद्वाद महाविद्यालय के जैन न्यायाध्यापक पं० महेन्द्रकुमारजी, जो उस समय न्याय-कुमुदचन्द्र का संशोधन कर रहे थे, प्रस्तुत कार्य में सम्मिलित कर लिए गए। उन्होंने ग्रन्थान्तरों से अवतरणों के संग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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