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________________ प्रमाणमीमांसायाः [ पृ० १०. पं०१४मीमांसकधुरीण कुमारिल ने धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादों का निराकरण बड़े प्रावेश और युक्तिवाद से किया है (मीमांसाश्लो० सू० २. श्लो० ११० से १४३ ) वैसे ही बौद्धप्रवर शान्तरक्षित ने उसका जवाब उक्त दोनों वादों के समर्थन के द्वारा बड़ी गम्भीरता और स्पष्टता से दिया है ( तत्त्वसं० पृ० ८४६ से ) । इसलिए यहाँ पर एक ऐतिहासिक प्रश्न होता है कि क्या 5 धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वाद अलग-अलग सम्प्रदायों में अपने-अपने युक्तिबल पर स्थिर होंगे. या किसी एक वाद में से दूसरे वाद का जन्म हुआ है। अभी तक के चिन्तन से यह जान पड़ता है कि धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादों की परम्परा मूल में अलग-अलग ही है। बौद्ध सम्प्रदाय धर्मज्ञवाद की परम्परा का अवलम्बी खास रहा होगा क्योंकि खुद बुद्ध ने ( मज्झिम० चूल-मालुक्यपुत्तसुत्त २.१ ) अपने को सर्वज्ञ उसी अर्थ में कहा है जिस 10 अर्थ में धर्मज्ञ या मार्गज्ञ शब्द का प्रयोग होता है। बुद्ध के वास्ते धर्मशास्ता, धर्मदेशक आदि विशेषण पिटकग्रन्थों में प्रसिद्ध हैं। धर्मकीर्ति ने बुद्ध में सर्वज्ञत्व को अनुपयोगी बताकर केवल धर्मज्ञत्व ही स्थापित किया है, जब कि शान्तरक्षित ने प्रथम धर्मज्ञत्व सिद्धकर गौणरूप से सर्वज्ञत्व को भी स्वीकार किया है। - सर्वज्ञवाद की परम्परा का अवलम्बी मुख्यतया जैन सम्प्रदाय ही जान पड़ता है क्योंकि 15 जैन आचार्यों ने प्रथम से ही अपने तीर्थकरों में सर्वज्ञत्व को माना और स्थापित किया है। ऐसा सम्भव है कि जब जैनों के द्वारा प्रबलरूप से सर्वज्ञत्व की स्थापना और प्रतिष्ठा होने लगी तब बौद्धों के वास्ते बुद्ध में सर्वज्ञत्व का समर्थन करना भी अनिवार्य और प्रावश्यक हो गया। यही सबब है कि बौद्ध तार्किक ग्रन्थों में धर्मज्ञवादसमर्थन के बाद सर्वज्ञवाद का समर्थन होने पर भी उसमें वह ज़ोर और एकतानता नहीं है, जैसी कि जैन तार्किक प्रन्थों में है। 20 मीमांसक ( श्लो० सू० २. श्लो० ११०-१४३. तत्त्वसं० का० ३१२४-३२४६ पूर्वपक्ष ) का मानना है कि यागादि के प्रतिपादन और उसके द्वारा धर्माधर्मादि का, किसी पुरुषविशेष १ " हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः। यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु ।" प्रमाणवा०२. ३२.३३ । २ "स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते। साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वशोऽपि प्रतीयते ॥"-तत्त्वसं. का० ३३०६ । “मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापकहेतुशत्वसाधनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः अशेषार्थ त्वसाधनमस्य तत् प्रासङ्गिकमन्यत्रापि भगवतो ज्ञानप्रवृत्तेः बाधकप्रमाणाभावात् साक्षादशेषार्थपरिज्ञानात् सर्वज्ञो भवन् न केनचिद् बाध्यते इति, अतो न प्रेक्षावतां तत्प्रतिक्षेपो युक्तः।"-तत्त्वसं० प० पृ०८६३। ३"से भगव अरहं जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणइ, तं. आगई गई ठिइचयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं श्राविकम्मं रहोकरमं लविय कहिय मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरह।" प्राचा० श्र०२. च०३. पृ०४२५ A. "तं नत्थि जंन पासह भूयं भव्वं भविस्सं च"-आव०नि० गा० १२७। भग० श०६. उ० ३२। "सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वसंस्थितिः॥"-श्राप्तमी० का०५।। ४ "यैः स्वेच्छासर्वज्ञो वर्ण्यते तन्मतेनाप्यसौ न विरुध्यते इत्यादर्शयन्नाह यद्यदित्यादि-यद्यदिच्छति बोद्धु वा तत्तद्वेत्ति नियोगतः। शक्तिरेवंविधा तस्य प्रहीणावरणो ह्यसौ ॥"-तत्त्वसं० का० ३६२८ । मिलि०,३. ६.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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