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________________ पृ० १०.५० १४.] भाषाटिप्पणानि । . २६ प्राप्ति के बाद सर्वज्ञ योगियों की आत्मा में भी पूर्ण ज्ञान शेष नहीं रहता, क्योंकि वह ज्ञान ईश्वरज्ञान की तरह नित्य नहीं पर योगजन्य होने से अनित्य है। सांख्य, योग और वेदान्त दर्शनसम्मत सर्वज्ञत्व का स्वरूप वैसा ही है जैसा न्यायवैशेषिकसम्मत सर्वज्ञत्व का। यद्यपि योगदर्शन न्याय-वैशेषिक की तरह ईश्वर मानता है तथापि वह न्याय-वैशेषिक की तरह चेतन प्रात्मा में सर्वज्ञत्व का समर्थन न कर सकने के 5 कारण विशिष्ट बुद्धितत्त्वर में ही ईश्वरीय सर्वज्ञत्व का समर्थन कर पाता है। सांख्य, योग और वेदान्त में बौद्धिक सर्वज्ञत्व की प्राप्ति भी मोक्ष के वास्ते अनिवार्य३ वस्तु नहीं है, जैसा कि जैन दर्शन में माना जाता है। किन्तु न्याय-वैशेषिक दर्शन की तरह वह एक योगविभूति मात्र होने से किसी-किसी साधक को होती है। ____ सर्वज्ञवाद से सम्बन्ध रखनेवाले हज़ारों वर्ष के भारतीय दर्शनशास्त्र देखने पर भी 10 यह पता स्पष्टरूप से नहीं चलता कि अमुक दर्शन ही सर्वज्ञवाद का प्रस्थापक है। यह भी निश्चयरूप से कहना कठिन है कि सर्वज्ञत्व की चर्चा शुद्ध तत्वचिन्तन में से फलित हुई है, या साम्प्रदायिक भाव से धार्मिक खण्डन-मण्डन में से फलित हुई है । यह भी सप्रमाण बतलाना सम्भव नहीं कि ईश्वर, ब्रह्मा आदि दिव्य आत्माओं में माने जानेवाले सर्वज्ञत्व के विचार से मानुषिक सर्वज्ञत्व का विचार प्रस्तुत हुआ, या बुद्ध-महावीरसदृश मनुष्य में 15 माने जानेवाले सर्वज्ञत्व के विचार-आन्दोलन से ईश्वर, ब्रह्मा आदि में सर्वज्ञत्व का समर्थन किया जाने लगा, या देव-मनुष्य उभय में सर्वज्ञत्व माने जाने का विचारप्रवाह परस्पर निरपेक्ष रूप से प्रचलित हुआ ?। यह सब कुछ होते हुए भी सामान्यरूप से इतना कहा जा सकता है कि यह चर्चा धर्म-सम्प्रदायों के खण्डन-मण्डन में से फलित हुई है और पीछे से उसने तत्त्वज्ञान का रूप धारण करके तात्त्विक चिन्तन में भी स्थान पाया है। और वह तटस्थ 20 तत्त्वचिन्तकों का विचारणीय विषय बन गई है। क्योंकि मीमांसक जैसे पुरातन और प्रबल वैदिक दर्शन के सर्वज्ञत्व सम्बन्धी अस्वीकार और शेष सभी वैदिक दर्शनों के सर्वज्ञत्व सम्बन्धी स्वीकार का एक मात्र मुख्य उद्देश्य यही है कि वेद का प्रामाण्य स्थापित करना जब कि जैन, बौद्ध आदि मनुष्य-सर्वज्ञत्ववादी दर्शनों का एक यहो उद्देश है कि परम्परा से माने जानेवाले वेदप्रामाण्य के स्थान में इतर शास्त्रों का प्रामाण्य स्थापित करना और वेदों का अप्रामाण्य । 25 जब कि वेद का प्रामाण्य-अप्रामाण्य ही असर्वज्ञवाद, देव-सर्वज्ञवाद और मनुष्य-सर्वज्ञवाद की चर्चा और उसकी दलीलों का एकमात्र मुख्य विषय है तब धर्म-संप्रदाय को इस तत्त्व. चर्चा का उत्थानबीज मानने में सन्देह को कम से कम अवकाश है। १ "तारकं सर्वविषयं सर्वथा विषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ॥"-योगसू० ३. ५४ । २ “निर्धतरजस्तमोमलस्य बुद्धिसत्त्वस्य परे वैशारद्ये परस्यां वशीकारसंज्ञायां वर्तमानस्य सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्ररूपप्रतिष्ठस्य...सर्वज्ञातृत्वम् , सर्वात्मनां गुणानां शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मत्वेन व्यवस्थितानामक्रमोपारूढं विवेकजं शानमित्यर्थः।"-योगभा० ३.४६ । ३."प्राप्तविवेकजज्ञानस्य अप्राप्तविवेकजज्ञानस्य वा सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ।"-- योगसू० ३. ५५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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