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________________ [ पृ० ६. पं० १४ जैन परम्परा ठीक शान्तरक्षितकथित बौद्धपक्ष के समान ही है । वह प्रामाण्यप्रामाण्य दोनों को अभ्यासदशा में 'स्वत:' और अनभ्यासदशा में 'परत:' मानती है । यह मन्तव्य प्रमाणनयतत्वालोक के सूत्र में ही स्पष्टतया निर्दिष्ट हैं । यद्यपि श्र० हेमचन्द्र ने प्रस्तुत सूत्र में प्रामाण्य प्रप्रामाण्य दोनों का निर्देश न करके परीक्षामुख की तरह 5 केवल प्रामाण्य के स्वतः परतः का ही निर्देश किया है तथापि देवसूरि का सूत्र पूर्णतया जैन परम्परा का द्योतक है। जैसे- " तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्चेति । " - परी० १. १३. । "तदुभयमुत्पत्तौ परत एव ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्चेति" - प्रमाणन० १.२१ । इस स्वत: परत: की चर्चा क्रमशः यहाँ तक विकसित हुई है कि इसमें उत्पत्ति, ज्ञप्ति और प्रवृत्ति तीनों को लेकर स्वतः परतः का विचार बड़े विस्तार से सभी दर्शनों में आ 10 गया है और यह विचार प्रत्येक दर्शन की अनिवार्य चर्चा का विषय बन गया है । और इस पर परिष्कारपूर्ण तत्त्वचिन्तामणि, गादाधरप्रामाण्यवाद आदि जैसे जटिल ग्रन्थ बन गये हैं । १८ 25 प्रमाणमीमांसायाः पृ० ६. पं० १४. 'अदृष्टार्थे तु' - आगम के प्रामाण्य का जब प्रश्न आता है तब उस का समर्थन ख़ास ख़ास प्रकार से किया जाता है । आगम का जो भाग परोक्षार्थक नहीं है उसके प्रामाण्य का समर्थन तो संवाद प्रादि द्वारा सुकर है पर उसका जो भाग परोक्षार्थक, 15 विशेष परोक्षार्थक है जिसमें चर्मनेत्रों की पहुँच नहीं, उसके प्रामाण्य का समर्थन कैसे किया जाय ? | यदि समर्थन न हो सके तब तो सारे श्रागम का प्रामाण्य डूबने लगता है । इस प्रश्न का उत्तर सभी सांप्रदायिक विद्वानों ने दिया है और अपने-अपने आगमों का प्रामाण्य स्थापित किया है। मीमांसक ने वेदों का ही प्रामाण्य स्थापित किया है पर वह 'अपौरुषेयत्व' युक्ति से, जब कि उन्हीं वेदों का प्रामाण्य न्याय-वैशेषिक ने अन्य प्रकार से 20 स्थापित किया है । अक्षपाद वेदों का प्रामाण्य प्राप्तप्रामाण्य से बतलाते हैं और उसके दृष्टान्त में वे कहते हैं कि जैसे वेद के एक अंश मन्त्र - श्रायुर्वेद आदि यथार्थ होने से प्रमाण हैं वैसे ही बाकी के अन्य अंश भी समान प्राप्तप्रणीत होने से प्रमाण हैं - " मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्याच्च तत्प्रामाण्यं प्राप्तप्रामाण्यात् । " - न्यायसू० २.१.६६ । आ० हेमचन्द्र ने आगमप्रामाण्य के समर्थन में अक्षपाद की ही युक्ति का अनुगमन किया है पर उन्होंने मन्त्र - आयुर्वेद को दृष्टान्त न बनाकर विविधकार्यसाधक ज्योतिष गणित शास्त्र को ही दृष्टान्त रक्खा है । जैन आचार्यों का मन्त्र आयुर्वेद की अपेक्षा ज्योतिष शास्त्र की ओर विशेष का इतिहास में जो देखा जाता है उसके प्रा० हेमचन्द्र अपवाद नहीं हैं । यह झुकाव प्राचीन समय में भी कैसा था इसका एक नमूना हमें धर्मकीर्त्ति के 30 ग्रन्थ में भी प्राप्य है । धर्मकीर्त्ति के पूर्वकालीन या समकालीन जैन तीर्थकरों में सर्वज्ञत्व का समर्थन ज्योतिषशास्त्र के उपदेशकत्व हेतु से का जैन धर्मी ने जैन परम्परा में से लेकर खण्डित या आचार्य अपने पूज्य करते थे इस मतलब दूषित किया है- "अत्र १ प्रमेयक० पृ० ३८ B-xx B Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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