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________________ ४६८ अदादिन्द्राय (अ). ३९६. २६६. | भन्यास्ता गुण (अ.) २५२. ११४. अदृश्यन्त पुर (अ.) ६३८. ३९१. अपङ्किलतटा (वि.) २७०. १९०. अद्यैवावां रण (वि.) ५९०. ४५१. अयमहिमरुचि (वि.) ४५४. २८८. ... [वे. सं. अं. ४. श्लो. १५. . अपाङ्गतरले (अ.) ५७१. ३६९. अधरदलं ते (अ.) ४९१. ३३१. अपि काचिच्छ्रता (वि.) १३१. ३६. [ रुद्रट का. लं. अ. ४ श्लो. २०] अपूर्वमधुरा (अ.) ३९१. २६६. अधरे बिन्दुः (वि.) १. ११. अप्यवस्तुनि (अ.) ५५. ६६. " [कु. म. श्लो. ४०३. ] [कु सं. स. ८ श्लो.] अधिकरतल (अ.) २३३. २०९. अप्यसजन (अ.) ५९३. ३७४. अनङ्गः पञ्चभिः (अ.) १५३. १४२. अभिधाय तदा (अ.) २६७. २६०. . अनङ्गमङ्गल ३३३. २४०. [शि. व स. १६. श्लो. २. ]. अनारङ्ग (अ.) ४३०. २९५. अभिनवकुश (वि.) ३३०. १९८. अनङ्गलङ्घनालग्न (वि.) ४८४. ३०९. । अभिनववधू (वि.) २९१. १९२. का. द. परि. ३. लो. ९०. [औ. वि. च. पृ १३३. मालवन्द्रस्य अनणुरणन्मणि (अ) ३७१. २६२. सु. हारावली. भासस्य ] [रुद्रट का. लं. अ. २. श्लो. २३] अमी ये दृश्यन्ते (वि) ५४४. ३५९.. . अनध्यवसिता (वि.) ५५३. ३६३. अमुं कनक (अ.) ८०. ८१. [धर्मकीतेः [म. भा. शा. प. अ. १५२. लो. ६५] अनवरतनयन (वि.) ४२७. २८२.. | अमृतममृतं (अ.) २५१. २१४. अनाधिव्याधि (अ.) ५०६. .३४३. | अयं जनः (वि.) ३४८. २२१. अनुत्तमानुभावस्य (अ.) ३६६, २६०. [कु. सं. स. ५. श्लो. ४० ] अनुरागवती (वि.) ५३.. ३२९. | अयमपि पटु (अ.) २१२. २०४. अन्त्रप्रोतहत (अ.) ३३८. २४०. [वि. अं. ४. 'लो. १] - [म. च. अं. १. *लो. ३५ ] | अम्भोजगर्भ (वि.) ६०४. ४५४. अन्त्रः कल्पित (वि.) १८९. १६८. [र. अं. ४. लो. २] [ मा. मा. अं. ५, लो. १८] | । अयमेकपदे (अ.) ८६. ८५. अन्नत्थ वच्च (अ.) ८५. ८५. [वि. अं. ४. लो. ३.] अन्नं लडहत्तणय (अ.) ५६९. ३६८. अन्यत्र यूयं (अ) ३३. ६१. अयं पद्मासना (अ.) ३२७. २३८. अन्यत्र व्रज (अ.) ७१६. ४२०. अय प्रसूनो (वि.) २९७. १९३. अन्ययान्यवनिता (अ.) ६२३. ३८५. । अयं मार्तण्डः (अ.) ६२७. ३८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001066
Book TitleKavyanushasana Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRasiklal C Parikh
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1938
Total Pages631
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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