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भूमिका
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के समय भोजों का प्रवन्ध होता था। भोजन अपने स्थान पर या मित्र आदि के स्थान पर किया जाता था । इक्षुरस, फलरस, धान्यरस आदि पानों का उल्लेख है । यवा, प्रसन्ना, अरिष्ट, श्वेतसुरा ये मद्य थे । यवागू दूध, घृत, तेल आदि से बनाई जाती थी। गुड़ और शकर के भेदों में शर्करा, मच्छंडिका, खज्जगगुल ( खायक गुड़) और इकास का उल्लेख है। समुद्र, सैन्धव, सौवर्चड, पांसुखार, यवाखार आदि नमक के भेद किये गये हैं। मिठाइयों में मोदक, पिंडिक, पप्पड, मोरेंडक, सालाकालिक, अम्बट्ठिक, पोवलिक, वोक्कितक्क, पोवलक, पप्पड, सक्कुलिका, पूष, फेणक, अक्खपूप, अपडित, पवितल्लक ( पोतलग), वेलातिक, पत्तभज्जित, सिद्धत्थिका, बीयक, उक्कारिका, मंदिल्लिका, दीह सक्कुलिका, खारबट्टिका, खोडक, दीवालिक (दीवले) दसीरिका, मिसकण्टक, महन्थतक, आदि तरह-तरह की मिठाइयाँ और खाद्यपदार्थ होते थे। अम्बट्टिक ( श्रमचुर या आम से बनी हुई मिठाई हो सकती है. जिसे अवधी में गुलम्बा कहते हैं ) । पोवालिक पौली नाम की मीठी रोटो और मुरण्डक छेने का बना हुआ मुरंदा या तिलके लड्डू होने चाहिएँ फेशक फैगी के रूप में आज भी प्रसिद्ध है।
४१ वाँ वरियगंडिका अध्याय है ।
इसमें मूर्तियों के प्रकार, आभरण और अनेक प्रकार की रत-सुरत की क्रीडाओं के नामों का संग्रह है। सुरत कीडाओं के तीन प्रकार कहे गये हैं-दिव्य तिर्यक् योनि और मानुषी । दिव्य क्रीडाओं में छत्र, शृंगार, जक्खोपयाण (संभवतः वत्तकदम नामक सुगंध की भेंट का प्रयोग होता है। मानुषी क्रीडा में, वस्त्र, आभूषण, यान, उपानह, माल्य, मुकुट, कंपी, स्नान, विशेषक, गन्ध, अनुलेपन, चूर्ण, भोजन, मुखवासक आदि का प्रयोग किया जाता है ( पृ० १८२६)।
४२ वें अध्याय ( स्वप्नाध्याय ) में दिट्ठ, अदिट्ठ और अवतदिट्ठ नामक स्वप्नों का वर्णन है। ये शुभ और अशुभ प्रकार के होते हैं। स्वप्नों के और भी भेद किये गये हैं- जैसे श्रुत जिसमें मेघ गर्जन, आभूषणों का या सुवर्ण मुद्राओं का शब्द या गीत आदि सुनाई पड़ते हैं। गंधस्वप्नों में सुगन्धित पदार्थ का अनुभव होता है। ऐसे दी कुछ स्वप्नों में स्पर्शसुख, सुरत, जलचर, देव, पशु, पक्षी आदि का अनुभव होता है। अनेक सगे सम्बन्धी भी स्वप्नों में दिखाई पड़ते हैं जो कि मानुषी स्वप्न कहलाते हैं । स्वप्नों में देव और देवियाँ भी दिखाई पड़ती हैं ( पृ० १८६ - १९१) ।
४३ वें अध्याय में प्रवास या यात्रा का विचार है । यात्रा में उपानह, छत्र, सप्पण (सन्तु), कत्तरिया (छुरी ), कुडिका, ओखली आवश्यक हैं। यात्री मार्ग में प्रपा नदी, पर्वत, तडाग, ग्राम, नगर, जनपद, पट्टन, सन्निवेश आदि में होता हुआ जाता था । विविध रूप रस गन्ध स्पर्श के आधार पर यात्रा का शुभाशुभ कहा जाता था । उससे लाभ, अलाभ, जीवन, मरण, सुख दुःख, सुकाल, दुष्काळ, भय, अभय आदि फल उपलब्ध होते हैं ० १९१-१९२ ॥
४४ वें अध्याय में प्रवास के उचित समय, दिशा, अवधि और गन्तव्य स्थान आदि के सम्बन्ध में विचार है ० १९२ – ९३ । ।
४५ वें प्रवेशाध्याय नामक प्रकरण में प्रवासी यात्री के घर लौटने का विचार है। मुक्त, पीत, खड़त लीड कर्णवेल, अभ्यंग, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल अंजन समाभणक (= विलेपन), अलत्तक, कलंजक, वण्णक, चुण्णक, अंगराग, उस्सिंघण ( सुगन्धि सूंघना ), मक्खण ( म्रक्षण-मालिश ), अब्भंगण, उच्छंदण (संभवतः आच्छादन), सण ( उद्वर्तन- उबटन), पयंस (प्रघर्षण द्वारा तैयार सामग्री), माल्य, सुरभिजोगसंविधायक (विविध गन्ध युति, आभरण और विविध भूषणों की संजोयणा ( अर्थात् सँजोना) एवं अलङ्कारों का मण्डन- इनके आधार पर प्रवासी के आगमन की आशा होती थी। इसी प्रकार शिविका, रथ, यान, जुग्ग, कट्टमुद्द, गिनी, संदण (स्पंदन ) सकट
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