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________________ ૪ अंगविनापणयं मछुओं का जाल फैलाकर यात्री उन्हीं पर बैठकर लगभग आठ मील की घंटे की रफ्तार से मजे में यात्रा कर लेते हैं। इस प्रकार के बजरे बहुत ही सुविधाजनक रहते हैं ठिकाने पर पहुँचकर मल्लाह खालों को पटकाकर कन्वे पर डाल लेता है और पैदल चलकर नदी के ऊपरी किनारे पर लौट आता है। भारत, ईरान, अफगानिस्तान और तिब्बत की नदियों में भस्त्रा या दृति का प्रयोग पाणिनि और दारा के समय से चला आया है। ईरान में इन्हें मश्का कहते थे । शालिका संभवतः उस प्रकार की नाव थी जिसमें शाला या बैठने उठने के लिये मंदिर ( केबिन ) पाटातान के ऊपर बना हो | पिंडिका वह गोल नाव थी जो बेतों की टोकरी को चमड़े से मढ़कर बनाई जाती थी ( पृ० १६५ - ६ । । ३४ वें संलाप नामक अध्याय में बातचीत का अंगविज्जा की दृष्टि से विचार किया है जिसमें स्थान समय एवं बातचीत करनेवाले की दृष्टि से फलाफल का विचार है । ३५ वें अध्याय का नाम पयाविसुद्धि (प्रजाविशुद्धि ) है । इसमें प्रजा या संतान के सम्बन्ध में शुभाशुभ का विचार किया गया है। छोटे बच्चे के लिये बच्छक और पुत्तक की तरह पिल्लक शब्द भी प्रयुक्त होने लगा था जो कि दक्षिणी भाषाओं से लिया हुआ शब्द ज्ञात होता ३६ वें अध्याय में दोहल ( दोहद के विषय में विचार किया गया है । दोहद अनेक प्रकार का हो सकता है । विशेष रूप से उसके पाँच भेद किये गये हैं- शब्दगत, गन्धगत, रूपगत, रसगत, स्पर्शगत । रूपगत दोहद के कई भेद हैं, जैसे पुष्प, नदी, समुद्र, तडाग, वापी, पुष्करिणी, अरण्य, भूमि, नगर, स्कन्धावार, युद्ध, क्रीडा, मनुष्य, चतुष्पाद, पक्षी आदि के देखने की इच्छा होती तो उसे रूपगत दोहद कहेंगे । गन्धगत दोहद के अन्तर्गत स्नान, अनुलेपन, अधिवास, स्नान चूर्ण, धूप, माल्य, पुष्प, फल आदि के दर्शन या प्राप्ति की इच्छा समझनी चाहिए। रसगत दोहद में पान, भोजन, खाद्य, लेह्य; और स्पर्शगत दोहद में आसन, शयन, वाहन, वस्त्र आभरण आदि का दर्शन और प्राप्ति समझी जाती थी । ३७ वें अध्याय की संज्ञा उक्षण अध्याय है। उक्षण बारह प्रकार के कहे गये हैं-वर्ण, स्वर, गति, संस्थान, संघयण (निर्माण), मान या लंबाई, उम्माण ( तोल ), सत्त्व, आणुक ( मुखाकृति), पगति ( प्रकृति ), छाया, सार—इन बारहों भेदों की व्याख्या की गई है, जैसे वर्ण के अन्तर्गत ये नाम हैं-अंजन, हरिवाल, मैनसिल, हिंगुल, चाँदी, सोना, मूँगा, शंख, मणि, दौरा, शुक्ति ( मोतो ), अगुरु, चन्दन, शयनासन, यान, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, तारा, उल्का, विद्युत्, मेघ, अग्नि, जल, कमल, पुष्प फल, प्रवाल, पत्र, मंड, तेल, सुरा, प्रसन्ना, पद्म, उत्पल, पुंडरीक, चम्पक, माल्याभरण आदि । फिर इनमें से प्रत्येक लक्षण का भी शुभाशुभ फल कहा गया है ( पृ० १७३-४ ) । ३८ वें अध्याय में शरीर के व्यंजन या तिल, मसा जैसे चिन्हों के आधार पर शुभाशुभ का कथन है । ३९ वें अध्याय की संज्ञा कण्णावासण है। इसमें कन्या के विवाह एवं उसके जन्म के फलाफल एवं कर्मगति का विचार है कि वह अच्छी होगी या दुष्ट होगी ( पृ० १७५-६ ) । भोजन नामक चालीसवें अध्याय में आहार के सम्बन्ध में विस्तृत विचार किया गया है। आहार तीन प्रकार का होता है - प्राणयोनि, मूळवोनि, धातुयोनि । प्राणयोनि के अन्तर्गत दूध, दही, मक्खन, तक्र, घृत, मधु आदि हैं। उसके भी संस्कृत : असंस्कृत, आग्नेय, अनाग्नेय भेद किये गये हैं । कंद, मूल, फल, फूल, पत्र आदि से भी आहार उपलब्ध होता है। कितने ही धान्यों के नाम गिनाये गये हैं । उत्सवों के समय भोज किये जाते थे । उपनयन, यज्ञ, मृतक, अध्ययन के आदि अन्त एवं गोष्ठी आदि Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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