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अंगविजापइण्णयं पट्टकार (रेशमी वस्त्र बनाने वाला ) दुस्सिक (दृष्य नामक वस्त्र बनानेवाले ), रजक, कोसेज (कौशेय या रेशमी वस्त्र बुनने वाला ), वाग ( वल्कल बनाने वाला) ओरब्भिक, महिसघातक, उस्सणिकामत्त (उख पेरने वाले ), छत्तकारक, वत्थोपजीवी, फलवाणिय, मूलवाणिय, धान्यवाणिय, ओदनिक, मंसवाणिज्ज, कम्मासवाणिज्न ( कम्मास या घुघरी बेचने वाला), तप्पणवाणिज (जौ आदि के सत्तू बेचने वाला ), लोणवाणिज्ज, आपूपिक (हलवाई ), खजकारक (खाजा बनाने वाला; इससे सूचित होता है कि खाजा नामक मिठाई कुषाण काल में भी बनने लगी थी), पण्णिक (हरी साग-सब्जी बेचनेवाला), फलवाणियक, सिंगरेवाणिया (सिंगबेर या अदरक बेचने वाला)।
इसके अनन्तर राजपुरुष और पेशेवर लोगों की मिली-जुली सूची दी गई है, जिनमें से नये नाम ये हैं-छत्तधारक, पसाधक (प्रसाधक, प्रसाधन कर्म करने वाला ), हत्थिखंस (एक प्रति के अनुसार हथिसंख), .. अस्सखंस (एक प्रति के अनुसार अस्ससंख; संभवतः यही मूलरूप था जो उच्चारण में वर्णविपर्यय से खंस बन गया ), अग्गि उपजीवी ( आहिताग्नि), कुसीलक, रंगावचर (रंगमंच पर अभिनय करने वाला ), गंधिक, मालाकार, चुणिकार (स्नान-चूर्ण बनाने वाला जिसे चुण्णवाणिय भी कहते थे), सूत मागध, पुस्समाणव, पुरोहित, धम्मट्ठ (धर्मस्थ ), महामंत (महामात्र), गणक, गंधिक-गायक, दपकार, बहुस्सुय (बहुश्रुत )। इस सूची के पुस्समाणव का उल्लेख पृष्ठ १४६ पर भी आ चुका है, और यह वही है जिसका पतंजलि ने 'महीपालवचः श्रुत्वा जुधुषुः पुष्यमाणवाः' इस श्लोकाध में उल्लेख किया है। ये पुष्यमाणव एक प्रकार के बन्दी जन या भाट ज्ञात होते हैं जो राजा की प्रशंसा में कुछ श्लोक पाठ करते या सार्वजनिक रूप से कुछ घोषणा करते थे। यहाँ 'महीपालवचः श्रुत्वा' यह उक्ति संभवतः पुष्यमित्र शुंग के लिए है। जब उसने सेना-प्रदर्शन के व्याज से उपस्थित अपने स्वामी अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ को मार डाला, तब उसके पक्षपाती पुष्यमाणवों ने सार्वजनिक रूप से उसके राजा बन जाने की घोषणा की। पतंजलि ने यह वाक्य किसी काव्य से उद्धृत किया जान पड़ता है; अथवा यह उसके समय में स्फुट उक्ति ही बन गई हो। पुष्यमाणव शब्द द्वयर्थक जान पड़ता है। उसका दूसरा अर्थ पुष्य अर्थात् पुष्यमित्र के माणव था ब्राह्मण सैनिकों से था (पृष्ठ १६०)।
दपकार का अर्थ स्पष्ट नहीं है। संभवतः दर्पकार का आशय अपने बल का घमंड करने वाले विशेष बलशाली व्यक्तियों से था जिन्हें वंठ कहते थे और जो अपने भारी शरीर बल से शेर-हाथियों से लड़ाए जाते थे। गन्धिक-गायक भी नया शब्द है। उसका आशय संभवतः उस तरह के गवैयों से था जिनमें गान विद्या के ज्ञान की सगन्धता या कौशल अभिमान रहता था।
सूची को आगे बढ़ाते हुए मणिकार, स्वर्णकार, कोट्टाक ( बढई; यह शब्द आचारांग २।१।२ में भी आया है, तुलना-संस्कृत कोटक, मानियर विलियम्स), वट्टकी (संभवतः कटोरे बनाने वाला , वत्थुपाढक ( वास्तु पाठक, वास्तुशास्त्र का अभ्यासी), वत्थुवापतिक ( वास्तुव्यापृतक-वास्तुकर्म करनेवाला) मंतिक (मान्त्रिक), भंडवापत (भाण्ड व्यापृत, पण्य या क्रय-विक्रय में लगा हुआ)। तित्थवापत (घाट वगैरह बनाने वाला), आरामवावट (बाग बगीचे का काम करने वाला), रथकार, दारुक, महाणसिक, सूत, ओदनिक, सामेलक्ख (संभवतः संभली या कुट्टनिओं की देख-रेख करने वाला विद्). गणिकाखंस, हत्थारोह, अस्सारोह, दूत, प्रेष्य, बंदनागरिय, चोरलोपहार (चोर एवं चोरी का माल पकड़ने वाला ), मूलकक्खाणक, मूलिक, मूलकम्म, सब्वसत्थक (सब शस्त्रों का व्यवहार करनेवाला, संभवतः अयःशूल उपायों से वर्तने वाले जिन्हें आयःशूलिक कहा जाता था)।
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