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________________ १० थ का अधिकार - मधापथ, रथमिह आदि । द का विकार - कब, कातंब, रापप्पसात, लोकहितय, रातण सं. राजादन, पातव, मुनिंग सं. मृदङ्ग, वेतिया आदि । द का अविकार - ओदनिक, पादर्किकणिका, अस्सादेहिति, पादखडुयक आदि । ध का विकार - परिसाहसतो सं. पर्षद्धर्षक: आदि । ध अविकार - ओधि, ओसघ, अविधेय, अन्वाबाध, खुधित, पसाधक, छुधा, सं. क्षुधा आदि । अंगविज्जापइएयं प का विकार - उत्थ आदि । प का अविकार - अपलिखित, अपसारित, अपविद्ध, अपसकंत, पोरेपच्च सं० भ का अविकार -- परभुत सं० परभृत आदि । य का विकार - सव्वओ जसवओ सं. यशस्वतः आदि । र का विकार -- दालित सं. दारित, फलिखा सं. परिखा, लसिया सं. रसिका आदि । व का विकार - अपमक सं. अवमक, अपमतर, अपीवर सं. अविवर, महापकास सं. महावकाश आदि । ह का विकार - रमस्स सं. रहस्य, बाधिरंग सं. बाह्याङ्ग, प्रधित सं. प्रहित, णाधिति प्रा. णाहिति सं . ज्ञास्यति आदि । पुरः पत्य, चेतितपादप आदि । लुप्त व्यंजनोंके स्थान में महाराष्ट्रीप्राकृत में मुख्यतया अस्पष्ट य श्रुति होती है, परन्तु जैनप्राकृत में त, ग, य, आदि वर्णोंका आगम होता है । त का आगम - रातोवरोध सं. राजोपरोध, पूता सं. पूजा, पूतिय सं. पूजित, आमतमत सं. आमयमय, गुरुत्थाणीत सं. गुरुस्थानीय, चेतितागत सं. चैत्यगत, पातुणंतो सं. गुणयन्, जवातू सं. यवागू, वीतपाल सं. बीजपालु आदि । ग का आगम - पागुन सं प्रावृत, सगुण सं. शकुन आदि । य का आगम - पूयि सं. पूजित, रयित सं रचित, पयुम सं. पद्म, रयत गिद्द सं. रजतगृह, सम्मोयिआ सं. सम्मुद् आदि । जैन प्राकृतमें कभी कभी शब्दों के प्रारम्भके स्वरोंमें त का आगम होता है । ये प्रयोग प्राचीन भाष्यचूर्णि और मूल आगम सूत्रों में भी देखे जाते हैं । तोपभोगतो सं. उपभोगतः, तूण सं. ऊन, तूहा सं. ऊहा, तेतेण सं. एते, तूका सं. यूका आदि । अनुस्वार के आगमवाले शब्द - गिंधी सं. गृद्धि, संली सं. स्थाली, मुंदिका सं. मृद्वीका, अप्पणि सं. आत्मनि आदि । अनुस्वारका लोप - सरसयित सं. संशयित आदि । इस प्राकृत भाषामें हस्व-दीर्घस्वर एवं व्यंजनोंके द्विर्भाव - एकीभावका व्यत्यास बहुत हुआ करता है । अँथमें ऐसे बहुतसे प्रयोग मिलते हैं- आमसती सं. आमृशति, अप्पणी सं. आत्मनी, णारिए सं. नार्याः, बुख सं. वृक्ष, णिखुड, णिकूड, कावकर, सयाण सं. सकर्ण आदि । Jain Education International जैसे प्राकृत में शालिवाहन शब्दका संक्षिप्त शब्द प्रयोग सालाहण होता है वैसे ही जैनप्राकृतमें बहुतसे संक्षिप्त शब्द प्रयोग पाये जाते हैं--साव और साग सं. श्रावक, उज्झा सं. उपाध्याय, कयार सं. कचवर, जा सं यवागू, रातण सं. राजादन आदि । a For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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