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________________ प्रस्तावना विजय जम्बूसूरिमहाराजके भंडारमें है, तेरहवीं शताब्दी में लिखी हुई दो ताडपत्रीय प्रतियाँ जैसलमेरमें हैं, तेरहवीं शताब्दीमें लिखी हुई एक ताडपत्रीय प्रति खंभातके श्री शान्तिनाथ ज्ञानभंडारमें है और एक ताडपत्रीय तेरहवीं शताब्दीमें लिखी हुई बडोदेके श्रीहंसविजयजी महाराजके ज्ञानभंडारमें है। ये पाँच प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियाँ चारकुलमें विभक्त हो जाती हैं। इनमें जो प्रायोगिक वैविध्य है वह भाषाशास्त्रीयों के लिये बड़े रसका विषय है। यही बात दूसरे आगमग्रन्थोंके बारेमें भी है। अस्तु, प्रसंगवशात् यहाँ जैन आगमों की भाषाके विषयमें कुछ सूचन करके अब अंगविजाको भाषाके विषयमें विचार किया जाता है। इस ग्रंथको भाषा सामान्यतया महाराष्ट्री प्राकृत है, फिर भी यह एक अबाध्य नियम है कि जैन रचनाओंमें जैन प्राकृत-अर्धमागधी भाषाका असर हमेशा काफी रहता है और इस वास्ते जैन ग्रन्थों में प्रायोगिक वैविध्य नजर आता है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि जैन निम्रन्थों का पादपरिभ्रमण अनेक प्रान्तों में प्रदेशोंमें होने के कारण उनकी भाषाके ऊपर जहाँ तहाँको लोकभाषा आदिका असर पड़ता है और वह मिश्र भाषा हो जाती है। यही कारण है कि इसको अर्धमागधी कहा जाता है। यहाँ पर यह ध्यान रखने की बात है कि जैसे जैन प्राकृत भाषाके ऊपर महाराष्ट्री प्राकृत भाषाका असर पड़ा है वैसे महाराष्ट्री भाषाके ऊपर ही नहीं, संस्कृत आदि भाषाओंके ऊपर भी जैन प्राकृत-अर्धमागधी भाषाका असर जरूर पड़ा है। यही कारण है कि ऐसे बहुतसे शब्द इधर तिधर प्राकृत-संस्कृत आदि भाषाओं में नजर आते हैं। अस्तु, इस अंगविज्जा ग्रन्थ की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत प्रधान भाषा होती हुई भी वह जैन प्राकृत है। इसी कारणसे इस ग्रंथमें हस्व-दीर्घस्वर, द्विर्भाव-अद्विर्भाव, स्वर-व्यंजनों के विकार-अविकार, विविध प्रकारके व्यंजनविकार, विचित्र प्रयोग-विभक्तियाँ आदि बहुत कुछ नजर आती हैं। भाषाविदों के परिचयके लिये यहाँ इनका संक्षेपमें उल्लेख कर दिया जाता है। क का विकार-परिक्खेस सं० परिक्लेश, निक्खुड सं० निष्कुट आदि । क का अविकार--अकल्ल, सकण्ण, पडाका, जूधिका, नत्तिका, पाकटित आदि । व का विकार-बुख सं. वृक्ष, लुक्काणि सं. रूक्षाणि, छीत सं. क्षुत, छुधा सं. क्षुधा, आदि । ख का विकार-कज्जूरी सं. खजूरी, साधिणो सं. शाखिमः आदि । ख का अविकार--मेखला, फलिखा आदि । ग का विकार-छंदोक, मक सं. मृग, मकतण्हा सं. मृगतृष्णा आदि । घका विकार--गोहातक सं. गोघातक, उल्लंहित सं. उल्लवित, छत्तोध सं. छत्रोध आदि । घ का अविकार--जघन्न, चोरघात आदि। च का अविकार--अचलाय, जाचितक आदि । ज का अविकार-जोजयितव्य, पजोजइस्सं आदि । ड का विकार-उलंगवी सं. षडङ्गवित्, दमिली सं. द्रविडी आदि । त का विकार---उदुसोभा, अणोदुग, पदोली, वदंसक, ठिदामास, भारधिक, पडिकुंडित सं. प्रतिकुंचित आदि । त का अविकार--उतु, चेतित, वेतालिक, पितरो, पितुस्सिया, जूतगिह, जूतमाला, जोतिसिक आदि । थ का विकार-आमधित, वीधी, कथा, मणोरध, रधप्पयात, पुधवी, गूध, रायपध, पाधेज, पवावत, मिधो, तध, जूधिका आदि। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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