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________________ अंगविजापइएणयं __ संवत् १५०५ वर्षे सा० गूजरभार्या पूरापूत्र्या सा० पूनपालभगिन्या श्रा० [व] रजाई नाम्न्या श्रीतपागच्छाधिराज श्री सोमसुंदरसूरिपट्टालंकार भट्टाकार प्रभु श्री जयचंद्रसूरिसुगुरूणामुपदेशेन लिखिता श्री अंगविद्या जीयात् ।" पुष्पिकाको देखनेसे प्रतीत होता है कि प्रति विक्रम सं० १५०५ में लिखी हुई है। प्रति उद्देहिकासे खाई हुई होनेसे अतिजीर्णदशामें पहुँच गई होने पर भी किसी कलाधरने कुशलतापूर्वक साँधकर इसको पुनर्जीवन दिया है, अत: वह दीर्घायुष्क हो गई है। हं० प्रति और त० प्रति ये दोनों प्रतियाँ एक कुलकी हैं। शुद्धिकी दृष्टिसे यह नितान्त अशुद्ध है और जगह-जगह पर इसमें पाठ, पाठसंदर्भ गलित हैं, फिर भी हं० प्रतिसे यह प्रति बहुत अच्छी है। यह प्रति तपागच्छ भंडारको होनेसे इसकी संझा मैंने तक रक्खी है। ३सं० प्रति-यह प्रति पाटनके श्री हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरमें स्थित श्रीसंघके भंडारकी है। भंडारमें प्रतिका क्रमांक ६९९ है और इसकी पत्रसंख्या १४८ है। पत्रके प्रतिपृष्ठमें १५ पंक्तियाँ और प्रति पंक्ति ५५ से १३ अक्षर लिखे गये हैं। प्रतिकी लंबाई-चौड़ाई ११॥४४॥ इञ्चकी है। लिपि सुंदर है किन्तु इसकी अवस्था इतनी जीर्णातिजीर्ण हो गई है कि इसको हाथ लगाना या पत्र उठाना बडा कठिन कार्य है; फिर भी संपूर्णतया मृत्युमुखमें पहुँची हुई इस प्रतिका उपयोग, प्रतिकी हिंसा करनेके दोषको सिर पर ऊठा करके भी मैंने संपूर्णतया किया है। प्रति अति अशुद्ध होनेके साथ, इसमें स्थान-स्थान पर पाठ, पाठसंदर्भ आदि गलित हो गये हैं। यह प्रति संघके भंडारकी होनेसे इसकी संज्ञा मैंने सं० रक्खी है। प्रतिके अंतमें निम्नोल्लिखित पुपिका है। णमो भगवतीए सुतदेवताए । श्री। थारापद्रजगच्छभूषणमणे: श्री शान्तिसूरिप्रभोः चंद्रकुले ॥ छ । एताओ गाधाओ संलावजोणीपडले आदिदितिकाओ । पुढवगतजा काया समायुत्ता कथा भवे । आधारितणिसित्तढे कधेत्ताण व पुच्छति ।। पसत्या अप्पसत्था वा अत्था णिद्धा सुभाऽसुभा । णिग्गुणा गुणसु (जु ) त्ता वा सम्मत्ता वा असम्मता ।। दुरा इति आसन्ना दीह हस्सा धुवा चला। संपताऽणागताऽतीता उत्तमाऽधम-मज्झिमा ।। जारिसी जाणमाणेण पुढवीसंकधा मवे । तेणेव पडिरूवेण तं तधा वग्गमादिसे ॥ श्रीअंगविद्यापुस्तकं संपूर्ण ।। छ । ग्रंथानं ९००० ।। छ ।। संवत् १५२१ वर्षे आषाढ बदि ९ भौमे श्रीपत्तने लिखितमिदं चिरं जीयात् ॥ छ ॥१॥ शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ॥ छ ।। ४ ली० प्रति—यह प्रति पाटनके श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरमें स्थित श्री संघके भंडारके साथ जुड़े हुए लींबडीपाडाभंडारकी है। भंडार में इसका क्रमांक ३७२१ है और पत्रसंख्या इसकी १३१ है। इसकी लंबाई-चौडाई ११॥४४॥ इंच है। इसकी लिपि सुंदर है, किन्तु इसकी दशा सं० प्रतिकी तरह जीर्णातिजीर्ण है। इसका भी उपयोग इस ग्रन्थके संशोधनमें पूर्णतया किया गया है। प्रति अति अशुद्ध है और इसमें भी स्थान Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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