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[चार तोर्थंकर : ६१ एक ही बात कहते नजर आते हैं कि सारा संसार दु:खी है, अपनी आरामतलबी के लिए दूसरों के दुःखों को मत बढ़ाओ। दूसरों के सुख में भागीदार मत बनो किन्तु उनके दुःख को हल्का करने या उनके निवारण में सतत प्रयत्नशील बनो। महावीर इसो एक बात को अनेकरूप में कहते थे । वे अपने संपर्क में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति से कहते थे कि मन, वचन और काय की एकता सिद्ध करो। तीनों का संवादी संगीत सिद्ध करो; जो विचारो उसी को करो; और जो सोचो वह भी ऐसा हो कि जिसमें क्षुद्रता और पामरता न हो। अपने आन्तरिक शत्रुओं को ही शत्रु समझो और उनको जीतने में ही वीरता दिखाओ। महावीर का कहना है कि यदि इस विषय में निमेष मात्र का भी प्रमाद होगा तो जीवन का महामूल्यवान् सदंश-दिव्य अंश निरर्थक होगा और पुनः प्राप्त होना कठिन होगा।
महावीर को जो तत्त्वज्ञान विरासत में मिला था और तदनुसार उन्होंने जो आचरण किया था वह संक्षेप में यही है कि जड़ और चेतन ये दो तत्त्व वस्तुतः भिन्न हैं और वे परस्पर प्रभावित करने के लिए उद्यत हैं इसी से कर्मवासना की आसुरी वृत्ति और चैतन्य तथा सत्पुरुषार्थ की देवी वृत्तिओं के बीच देवासुर संग्राम सतत होता रहता है। किन्तु अंत में चैतन्य का प्रकाशक निश्चल बल ही जड़वासना के अन्धबल को परास्त कर सकता है। इस तत्त्वज्ञान की गहरी समझ ने ही उनमें आध्यात्मिक स्पन्दन को उत्पन्न किया था और इसी से वे सिर्फ वीर ही नहीं, महावीर बने। उनके समग्र उपदेश में उनकी यही महावीरता प्रस्फुटित होती है। उनकी जाति, क्या थी? उनका जन्मस्थान कहाँ था ? माता-पिता और दूसरे स्नेही कौन-कैसे थे? गरीब या समद्ध ? इत्यादि स्थूल जीवन से सम्बद्ध प्रश्नों का होना स्वाभाविक है। उसमें अनेक अतिशयोक्तियाँ होंगी, रूपकों को स्थान मिलेगा, किन्तु जीवन-शुद्धि और मानवता के उत्कर्ष में उपकारक बन सके ऐसी उनकी जीवन-रेखा तो ऊपर जो मैंने संक्षेप में आलेखित की है वही है और आज मैं महावीर के उसी जीवनांश पर जोर देना चाहता हूं। इसी में हमारे जैसे तथाकथित अनुयायी भक्तों और जिज्ञासुओं की श्रद्धा और बुद्धि
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