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८४ : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण] प्रवृत्ति के साथ जुड़ने योग्य निवृत्ति के तत्त्व को एक किनारे करके प्रवृत्ति को ही कर्म समझने लगे। इस प्रकार धर्म और कर्म दोनों के उपासक एक दूसरे के बिलकुल विपरीत आमने-सामने के किनारों पर जा बैठे । उसके पश्चात् एक दूसरे के आदर्श को अधूरा, अव्यवहार्य अथवा हानिकारक बताने लगे। परिणाम यह हुआ कि सांप्रदायिक मानस ऐसे विरुद्ध संस्कारों से गढ़ा जा चुका है कि यह बात समझना भी अब कठिन हो गया है कि धर्म और कर्म ये दोनों एक ही सत्य के दो बाजू हैं। यही कारण है कि धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण के पंथ में परस्पर विरोध, अन्यमनस्कता और उदासीनता दिखाई पड़ती है।
यदि विश्व में सत्य एक ही हो और उस सत्य की प्राप्ति का मार्ग एक ही न हो तो भिन्न-भिन्न मार्गों से उस सत्य के समीप किस प्रकार पहुंच सकते हैं, इस बात को समझने के लिये विरोधी और भिन्न-भिन्न दिखाई देने वाले मार्गों का उदार और व्यापक दृष्टि से समन्वय करना प्रत्येक धर्मात्मा और प्रतिभाशाली पुरुष का आवश्यक कर्तव्य है। अनेकान्तवाद की उत्पत्ति वास्तव में ऐसी ही विश्वव्यापी भावना और दृष्टि स हुई है। ___ इस जगह एक धर्मवीर और एक कर्मवीर के जीवन की कुछ घटनाओं की तुलना करने के विचार में से यदि हम धर्म और कर्म के व्यापक अर्थ का विचार कर सकें तो यह चर्चा शब्दपटु पंडितों का कोरा विवाद न बनकर राष्ट्र और विश्व की एकता में उपयोगी होगी। ई० १९३२]
[ अनु० पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल ।
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