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________________ दीर्घ तपस्वी महावीर आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहिले जब भगवान् महावीर का जन्म नहीं हुआ था, भारत की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति ऐसी थी जो एक विशिष्ट आदर्श की अपेक्षा रखती थी। देश में ऐसे अनेक मठ थे, जहाँ आजकल के बाबाओं की तरह झुण्ड के झुण्ड रहते थे और तरह-तरह की तामसिक तपस्याएँ करते थे । अनेक ऐसे आश्रम थे, जहाँ दुनियादार आदमी की तरह ममत्व रखकर आजकल के महन्तों के सदृश बड़े-बड़े धर्मगुरु रहते थे। कितनी ही संस्थाएँ ऐसी थीं जहाँ विद्या की अपेक्षा कर्मकाण्ड की, खास करके यज्ञ की प्रधानता थी और उन कर्मकाण्डों में पशुओं का बलिदान धर्म माना जाता था। समाज में एक ऐसा बड़ा दल था, जो पूर्वज के परिश्रमपूर्वक उपार्जित गुरुपद को अपने जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में स्थापित करता था । उस वर्ग में अपवित्रता की, उच्चता की और विद्या की ऐसी कृत्रिम अस्मिता रूढ हो गई थी कि जिसकी बदौलत वह दूसरे कितने ही लोगों को अपवित्र मानकर अपने से नीच समझता और उन्हें घुणायोग्य समझता, उनकी छाया के स्पर्श तक को पाप मानता तथा ग्रन्थों के अर्थहीन पठन मात्र में पाण्डित्य मान कर दूसरों पर अपनी गुरुसत्ता चलाता । शास्त्र और उसकी व्याख्याएँ विद्वद्गम्य भाषा में होती थीं, इससे जनसाधारण उस समय उन शास्त्रों से यथेष्ट लाभ न उठा पाता था। स्त्रियों, शद्रों और खास करके अति शूद्रों को किसी भी बात में आगे बढ़ने का पूरा मौका नहीं मिलता था। उनकी आध्यात्मिक महत्वाकांक्षाओं के जागृत होने का, अथवा जागृत होने के बाद उनके पुष्ट रखने का कोई खास आलम्बन न था। पहिले से प्रचलित जैन गुरुओं की परम्परा में भी बड़ी शिथिलता आ गई थी। गण-सत्ताक अथवा राज-सत्ताक राज्य इधर-उधर बिखरे हुए थे। यह सब कलह में जितना अनुराग रखते, उतना मेल-मिलाप में नहीं। हर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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