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________________ [ भगवान् ऋषभदेव और उनका परिवार : २३ हारे, यह अहिंसक युद्ध सब के सीखने लायक है। सारे संसार में इसका प्रसार हो और अगर इसके लिए त्यागीगण प्रयत्न करें तो उसके द्वारा संसार का कितना हित हो? इससे युद्ध की तृष्णा पूरी होगी, हार-जीत का निश्चय हो जायगा और संहार होने से रुक जायेगा । परन्तु दूसरे लोग नहीं तो आखिर जैन ही यह कहेंगे कि जगत् ऐसे युद्ध को स्वीकार करेगा सही? पर यहीं जैन भाइयों को हम पूछे कि जगत् उस अहिंसक युद्ध को स्वीकार न करे तो न सही, परन्तु अहिंसा और निवृत्तिधर्म का उपदेश दिन-रात देने वाले त्यागी वर्ग जो आमने-सामने की छावनियों में बँटकर अपने-अपने पक्षों के लड़ाकू श्रावकों को खड़े करके अनेक भाँति से लड़ रहे हैं, वे ऐसे किसी अहिंसक युद्ध का आश्रय क्यों न लें ? अगर दो मुख्य आचार्यों के बीच में तकरार हो तो वे दोनों ही दृष्टि या मौन-युद्ध से नहीं तो तप-युद्ध से हार-जीत का निर्णय क्यों नहीं कर लेते ? जो अधिक और उग्र तप करे वह जीते । इससे संयम-पोषण के साथ-साथ जगत् में आदर्श स्थापित होगा। इसके अलावा बाहुबली के जीवन में से एक बहुत महत्त्व का सबक यह भी जैनों को सीखने के वास्ते मिलता है कि बाहुबली ने भरत को मारने के लिए मुट्ठी तो उठायी, किन्तु तुरन्त विवेक उत्पन्न होते ही उन्होंने मुट्ठी बीच में ही रोक ली। रोककर भी उसको अपने सिर पर चलाया, सो भी इस तरह कि जिससे आत्मघात न हो पर अभिमान-घात हो।' उन्होंने अहंकार की प्रतीक अमर्षाच्चिन्तयित्वैवं सुनन्दानन्दनो दृढाम् । मुष्टिमुद्यम्य यमवद् भीषणः समधावत ॥७२७॥ मर्यादोामिवोदन्वांस्तत्र तस्थौ रयादपि । एवं च स महासत्त्वश्चिन्तयामास चेतसि ॥७२६।। अहो राज्यस्य लुब्धेन लुब्धकादपि पापिना। अमुनेव समारब्धो धिग्-धिग् भ्रातृवधो मया ॥७३२॥ त्रिजगत्स्वामिनो विश्वाभयदानै कसत्रिणः । एष पान्थी भविष्यामि पथि तातस्य संप्रति ॥७३६॥ इत्युदित्वा महासत्त्व : सोऽग्रणी शीघ्रकारिणम् । तेनैव मुष्टिना मूनि उद्दध्र तृणवत् कचान् ॥७४०॥ त्रिषष्टि० १. ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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