SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चार तीर्थंकर : १४३ किसी रूप में प्राप्त हुआ। उसी में प्रतिपादित विषयों पर ही उन्होंने अपनी प्रकृति के अनुसार आचारांग आदि ग्रन्थों की जुदे जुदे हाथों से रचना हई। (२) महावीरशासित संघ में पूर्वश्रुत और आचारांग आदि श्रुत-दोनों की बड़ी प्रतिष्ठा रही। फिर भी पूर्वश्रुत की महिमा अधिक ही की जाती रही है। इसी से हम दिगम्बर-श्वेतांबर दोनों परंपरा के साहित्य में आचार्यों का ऐसा प्रयत्न पाते हैं जिसमें वे अपने अपने कर्म विषयक तथा ज्ञान आदि विषयक इतर पुरातन ग्रन्थों का सम्बन्ध उस विषय के पूर्वनामक ग्रन्थ से जोड़ते हैं, इतना ही नहीं पर दोनों परंपरा में पूर्वश्रत का क्रमिक ह्रास लगभग एकसा वर्णित होने पर भी कमोवेश प्रमाण में पूर्वज्ञान को धारण करने वाले आचार्यों के प्रति विशेष बहुमान दरसाया गया है। दोनों परंपरा के वर्णन से इतना निश्चित मालूम पड़ता है कि, सारी निग्रंथ परंपरा अपने वर्तमान श्रु त का मूल पूर्व में मानती आई है । (३) पूर्वश्रुत में जिस जिस देश-काल का एवं जिन-जिन व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिम्ब था उससे आचारांग आदि अंगों में भिन्न देशकाल एवं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिम्ब पड़ा यह स्वाभाविक है; फिर भी आचार एवं तत्त्वज्ञान के मुख्य मुद्दों के स्वरूप में दोनों में कोई खास अन्तर नहीं पड़ा। उपसंहार___महावीर के जीवन तथा धर्मशासन से सम्बद्ध अनेक प्रश्न ऐसे हैं, जिनकी गवेषणा आवश्यक है। जैसे कि आजीवक परंपरा से महावीर का सम्बन्ध तथा इतर समकालीन तापस, परिव्राजक और बौद्ध आदि परंपराओं से उनका सम्बन्ध-ऐसे सम्बन्ध जिन्होंने महावीर के प्रवृत्ति क्षेत्र पर कुछ असर डाला हो या महावीर की धर्म प्रवृत्ति ने उन परंपराओं पर कुछ-न-कुछ असर डाला हो। ____ इसी तरह पार्श्वनाथ की जो परंपरा महावीर के संघ में सम्मिलित होने से तटस्थ रही उसका अस्तित्व कब तक, किस किस रूप में और कहाँ कहाँ रहा अर्थात् उसका भावी क्या हुआ-यह प्रश्न भी विचारणीय है। खारवेल, जो अद्यतन संशोधन के अनुसार जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy