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________________ चार तीर्थंकर : १३७ (३) सनअदत्तादान-और (४) सर्गबहिद्धादाण-से विरमण । इनमें से "बहिद्धादाण" का अर्थ जानना यहाँ प्राप्त है। नवांगीटीकाकार अभयदेव ने 'बहिद्धादाण" शब्द का अर्थ “परिग्रह" सूचित किया है । “परिग्रह से विरति" यह पाश्र्वापत्यिकों का चौथा याम था, जिसमें अब्रह्म का वर्जन अवश्य अभिप्रेत था। पर जब मनुष्यसुलभ दुर्बलता के कारण अब्रह्मविरमण में शिथिलता आई और परिग्रह विरति के अर्थ में स्पष्टता करने की जरूरत मालूम हुई तब महावीर ने अब्रह्म विरमण को परिग्रहविरमण से अलग स्वतन्त्र यम रूप में स्वीकार करके पांच महाव्रतों की भीष्मप्रतिज्ञा निग्रंथों के लिए रक्खी और स्वयं उस प्रतिज्ञा-पालन के पुरस्फर्ता हुए। इतना ही नहीं बल्कि क्षण-क्षण के जीवनक्रम में बदलनेवाली मनोवत्तियों के कारण होनेवाले मानसिक, वाचिक, कायिक दोष भी महावीर को निर्ग्रन्थ जीवन के लिए अत्यन्त अखरने लगे, इससे उन्होंने निग्रंथजीवन में सतत जागृति रखने की दृष्टि से प्रतिक्रमण धर्म को नियत स्थान दिया, जिससे कि प्रत्येक निग्रंथ सायं-प्रातः अपने जीवन की त्रुटियों का निरीक्षण करे और लगे दोषों की आलोचनापूर्वक आयंदा दोषों से बचने के लिए शुद्ध संकल्प को दृढ़ करे । महावीर की जीवनचर्या और उनके उपदेशों से यह भलीभाँति जान पड़ता है कि, उन्होंने स्वीकृत प्रतिज्ञा की शुद्धि और अन्तर्जागृति पर जितना भार दिया है उतना अन्य चीजों पर नहीं । यही कारण है कि तत्कालीन अनेक पाश्र्वापत्यिकों के रहते हुए भी उन्हीं में से १. मज्झिमगा बावीसं अरहंता भगवंता चाउज्जामं धम्म पण्ण वेति तं० - सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं, एवंमुसावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिनादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं १।-स्थानांग, सूत्र २६६, पत्र २०१ अ।। "बहिद्धादाणाओ" त्ति बहिद्धा-मैथुनं पहिग्रहविशेषः आदानं च परिग्रहस्तयोर्द्वन्द्वैकत्वमथवा आदीयत इत्यादानं परिग्राह्य वस्तु तच्च धर्मोपकरणमपि भवतीत्यत आह-बहिस्तात्-धर्मोपकरणाद् बहिर्यदिति । इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषित् भुज्यत इति । -स्थानांग, २६६ सूत्रवृत्ति, पत्र २०१ ब । ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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