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________________ चार तीर्थंकर : ११५ संपत्ति को संतति बिलकुल फना कर देती । संस्कार यह मातापिता से भी मिलते हैं, शिक्षक और मित्रों से भी मिलते हैं तथा जिस समाज में संवर्धन हो उसमें से भी मिलते हैं। संस्कार की यह तीसरी विरासत एक ही प्रकार की नहीं होती । भाषाकोय और दूसरे अनेक प्रकार के संस्कार प्राप्त होते हैं । जीवन जीने के लिए, उसे विकसित और समृद्ध बनाने के लिए उक्त तीनों प्रकार की विरासतें आवश्यक हैं यह सच है। किन्तु उन तीनों प्रकार की विरासतों में जीवन को प्ररणा देनेवाली, उसमें संजीवनी का प्रवेश करानेवाली विरासत यह तो अनोखी ही है। यही कारण है कि वह विरासत मंगलरूप है। यदि यह मांगलिक विरासत न मिले तो उक्त तीनों विरासत के बल पर हम साधारण जीवन तो बिता सकते हैं किन्तु उनके सहारे हमारा जीवन उच्च और धन्य नहीं हो सकता। वही इस चतुर्थ विरासत की विशेषता है। जो मांगलिक विरासत भगवान् महावीर से हमने पाई है वैसी विरासत मातापिता, बड़ों, या सामान्य समाज में से प्राप्त होने का नियम नहीं। फिर भी वह किसी अनोखे प्रवाह में से मिलती तो है ही। शारीरिक, सांपत्तिक और सांस्कारिक ये तीनों विरासतें स्थूल इन्द्रियगम्य हैं, जब कि चौथे प्रकार की विरासत के बारे में ऐसा नहीं है । जिस मनुष्य को प्रज्ञेन्द्रिय प्राप्त हो, जिसका संवेदन सूक्ष्म और सूक्ष्मतर हो वहो इस विरासत को समझ या ग्रहण कर सकता है । दूसरी विरासतें जीवन रहते ही या मृत्यु के समय नष्ट हो जाती हैं जब कि वह मांगलिक विरासत कभी नष्ट नहीं होती। एक बार यदि यह विरासत चैतन्य में प्रविष्ट हो गई तो वह जन्मजन्मान्तर चलती है, उसका उत्तरोत्तर विकास होता है वह अनेक व्यक्तियों को संप्लावित भी करेगी ही। हम लोगों ने ऐसी आर्यपरंपरा में जन्म प्राप्त किया है कि जन्मते ही ऐसी मांगलिक विरासत के आन्दोलन जाने न जाने हमें स्पर्श करते हैं । यह हो सकता है कि हम उसे ग्रहण न कर सकें, यथार्थ रूप में जान भी न सकें, किन्तु इस मांगलिक विरासत के आन्दोलन आर्यभूमि में बहुत ही सहज हैं। श्री अरविन्द, सर राधाकृष्णन् आदि भारत-भूमि को आध्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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