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[चार तीर्थंकर : १०३
शास्त्र के प्रामाण्य को मानने वाले अनुयायियों के लिए कोई शंका या तर्क के लिए गुंजाइश ही न रह गई कि वे असली बात जानने का प्रयत्न करें। देव के हस्तक्षेप द्वारा गर्भापहरण की जो कल्पना शास्त्रारूढ़ हो गई उसकी असंगति तो महाविदेह के सीमंधर स्वामी के साथ संबंध जोडकर टाली गई फिर भी कर्मवाद के अनुसार यह तो प्रश्न था ही कि जब जैनसिद्धांत जन्मगत जातिभेद या जातिगत ऊँच-नीच भाव को नहीं मानता और केवल गुण कर्मानुसार ही जातिभेद की कल्पना को मान्य रखता है तो उसे महावीर के ब्राह्मणत्व पर क्यों क्षत्रियत्व स्थापित करने का आग्रह रखना चाहिए? अगर ब्राह्मण-कुल तुच्छ और अनधिकारी ही होता तो इन्द्रभूति आदि सभी ब्राह्मण-गणधर बन कर केवली कैसे हुए ? अगर क्षत्रिय हो उच्च कुल के हों तो फिर महावीर के अनन्य भक्त श्रेणिक आदि क्षत्रिय नरक में क्यों कर गये? स्पष्ट है कि जैनसिद्धांत ऐसी जातिगत कोई ऊँच-नीचता की कल्पना को नहीं मानता पर जब गर्भापहरण द्वारा त्रिशलापुत्र रूप से महावीर की फैली हुई प्रसिद्धि के समाधान का प्रयत्न हुआ तब ब्राह्मण-कुल के तुच्छत्वादि दोषों की असंगत कल्पना को भी शास्त्र में स्थान मिला और उस असंगति को संगत बनाने के काल्पनिक प्रयत्न में से मरीचि के जन्म में नीचगोत्र बाँधने तक की कल्पना कथा-शास्त्र में आ गई। किसी ने यह नहीं सोचा कि ये मिथ्या कल्पनाएँ उत्तरोत्तर कितनी असंगतियाँ पैदा करती जाती हैं और कर्मसिद्धांत का ही खून करती हैं ? मेरी उपर्युक्त धारणा के विरुद्ध यह भी दलील हो सकती है कि भगवान् की जननी त्रिशला ही क्यों न हो और देवानन्दा उनकी धातृमाता हो। इस पर मेरा जवाब यह है कि देवानन्दा धातृमाता होती तो उसका उस रूप से कथन करना कोई लाघव की बात न थी। क्षत्रिय के घर पर धातृमाता कोई भी हो सकती है। देवानन्दा का धातृमाता रूप से स्वाभाविक उल्लेख न करके उसे मात्र माता रूप से निदिष्ट किया है और गर्भापहरण की असत् कल्पना तक जाना पड़ा है सो धातृपक्ष में कुछ भी करना न पड़ता और सहज वर्णन आ जाता।
अब हम सुमेरुकम्पन की घटना पर विचार करें :-उनकी असं
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