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________________ प्रमेय-खण्ड ५६ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । स्याद्वाद के भंगों की रचना में संजयवेलट्ठीपुत्स के १ विक्षेपवाद से भी सहयोग लिया-यह संभव है। किन्तु भगवान् बुद्ध ने तत्कालीन नानावादों से अलिप्त रहने के लिए जो रुख अंगीकार किया था, उसी में अनेकान्तवाद का बीज है, ऐसा प्रतीत होता है । जीव और जगत् तथा ईश्वर के नित्यत्व एवं अनित्यत्व के विषय में जो प्रश्नहोते थे, उनको बुद्ध ने अव्याकृत बता दिया। इसी प्रकार जीव और शरीर के विषय में भेदाभेद के प्रश्न को भी उन्होंने अव्याकृत कहा है । जब कि भगवान् महावीर ने उन्हीं प्रश्नों का व्याकरण अपनी दृष्टि से किया है। अर्थात् उन्हीं प्रश्नों को अनेकान्तवाद के आश्रय से सुलझाया है। उन प्रश्नों के स्पष्टीकरण में से जो दृष्टि उनको सिद्ध हुई, उसी का सार्वत्रिक विस्तार करके अनेकान्तवाद को सर्ववस्तु-व्यापी उन्होंने बना दिया है । यह स्पष्ट है कि भगवान् बुद्ध दो विरोधी वादों को देखकर उनसे बचने के लिए अपना तीसरा मार्ग उनके अस्वीकार में ही सीमित करते हैं, तब भगवान् महावीर उन दोनों विरोधी वादों का समन्वय करके उनके स्वीकार में ही अपने नये मार्ग अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा करते हैं । अतएव अनेकान्तवाद की चर्चा का प्रारम्भ बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नों से किया जाए, तो उचित ही होगा। भगवान बुद्ध के अव्याकृत प्रश्न : भगवान् बुद्ध ने निम्नलिखित प्रश्नों को अव्याकृत कहा है—४२ १. लोक शाश्वत है ? २. लोक अशाश्वत है ? ३. लोक अन्तवान् है ? ४. लोक अनन्त है ? ५. जीव और शरीर एक हैं ? ६. जीव और शरीर भिन्न हैं ? ७. मरने के बाद तथागत होते हैं ? ४१ दीघनिकाय-सामअफलसुत्त । ४२ मज्झिमनिकाय चूलमालुक्यसुत्त ६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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