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________________ प्रमेय-खण्ड ५५ अतएव आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवाद को स्याद्वाद भी कहा जाए, तो अनुचित नहीं । भगवान् बुद्ध का विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्र में था । और भगवान् महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक था । यही कारण है कि जैनदर्शन आगे जाकर अनेकान्तवाद में परिणत हो गया और बौद्ध दर्शन किसी अंश में विभज्यवाद होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अग्रसर हुआ। ___ भगवान् बुद्ध के विभज्यवाद की तरह भगवान् महावीर का विभज्यवाद भी भगवती-गत प्रश्नोत्तरों से स्पष्ट होता है । गणधर गौतम आदि और भगवान् महावीर के कुछ प्रश्नोत्तर नीचे दिए जाते हैं, जिनसे भगवान् महावीर के विभज्यवाद की तुलना भगवान् बुद्ध के विभज्यवाद से करनी सरल हो सके। गौतम-कोई यदि ऐसा कहे कि-'मैं सर्वप्राण, सर्वभूत, सर्व जीव, सर्वसत्त्व की हिंसा का प्रत्याख्यान करता हूँ नो क्या उसका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान ? भगवान् महावीर स्यात् सुप्रत्याख्यान है और स्यात् दुष्प्रत्या ख्यान है। गौतम--भंते ! इसका क्या कारण ? भगवान महावीर-जिसको यह भान नहीं, कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये त्रस हैं और ये स्थावर, उसका वैसा प्रत्याभ्यान दुप्प्रत्याख्यान है। वह मृपावादी है । किन्तु जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये त्रस हैं और ये स्थावर, उसका वैसा प्रत्याख्यान सूप्रत्याख्यान है, वह सत्यवादी है। -भगवती ग० ७. उ० २. सू० २७० । जयंती-भंते ! मोना अच्छा है या जागना ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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