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________________ प्रमेय खण्ड ४७ आनन्द ने एक प्रश्न भगवान् बुद्ध से किया कि आप बारबार लोक शून्य है, ऐसा कहते हैं । इसका तात्पर्य क्या है ? बुद्ध ने जो उत्तर दिया उसी से बौद्ध दर्शन की अनात्मविषयक मौलिक मान्यता व्यक्त होती है: __"यस्मा च खो आनन्द सुअं अतेन वा अत्तनियेन वा तस्मा सुओ लोको ति बुच्चति । कि व मानन्द सुझं अत्तेन वा अत्तनियेन वा ? चक्खु खो आनन्द सुझं अतेन वा अत्तनियेन वा....."रूपं......"रूपविज्ञाणं........" इत्यादि ।-संयुत्तनिकाय XXXV.85. भगवान् बुद्ध के अनात्मवाद का तात्पर्य क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में इतना स्पष्ट करना आवश्यक है कि ऊपर की चर्चा से इतना तो भलीभांति ध्यान में आता है कि भगवान् बुद्ध को सिर्फ शरीरात्मवाद ही अमान्य है, इतना ही नहीं बल्कि सर्वान्तर्यामी नित्य, ध्रुव, शाश्वत ऐसा आत्मवाद भी अमान्य है। उनके मत में न तो आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न ही है और न आत्मा शरीर से अभिन्न ही । उनको चार्वाकसम्मत भौतिकवाद भी एकान्त प्रतीत होता है और उपनिषदों का कूटस्थ आत्मवाद भी एकान्त प्रतीत होता है। उनका मार्ग तो मध्यम मार्ग है । प्रतीत्यसमुत्पादवाद है । वही अपरिवर्तिष्णु आत्मा मर कर पुनर्जन्म लेती है और संसरण करती है ऐसा मानने पर शाश्वतवाद२९ होता है और यदि ऐसा माना जाए कि माता-पिता के संयोग से चार महाभूतों से आत्मा उत्पन्न होती है और इसी लिए शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त होती है, तो यह उच्छेदवाद है । तथागत बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों को छोड़कर मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है । भगवान बुद्ध के इस अशाश्वतानुच्छेदवाद का स्पष्टीकरण निम्न संवाद से होता है २९ दीघनिकाय-ब्रह्मजालसुत्त । ३. संयुत्तनिकाय XII. 17. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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