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________________ ४६ आगम-युग का जैन दर्शन में इस प्रकार के विकल्प करना ठीक है कि यह मेरा है, यह मैं हूँ, यह मेरी आत्मा है ? नहीं । इसी क्रम से वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान के विषय में भी प्रश्न करके भगवान् बुद्ध ने अनात्मवाद को स्थिर किया है । इसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियाँ, उनके विषय तज्जन्य विज्ञान, मन, मानसिक धर्म और मनोविज्ञान इन सबको भी अनात्म सिद्ध किया है । 1 कोई भगवान् बुद्ध से पूछता कि जरा-मरण क्या है और किसे होता है, जाति क्या है और किसे होती है, भव क्या है और किसे होता है ? तो तुरन्त ही वे उत्तर देते कि ये प्रश्न ठीक नहीं । क्यों कि प्रश्नकर्त्ता इन सभी प्रश्नों में ऐसा मान लेता है कि जरा आदि अन्य हैं और जिसको ये जरा आदि होते हैं, वह अन्य हैं । अर्थात् शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है । किन्तु ऐसा मानने पर ब्रह्मचर्यवास - धर्माचरण संगत नहीं । अतएव भगवान् बुद्ध का कहना है कि प्रश्न का आकार ऐसा होना चाहिए - जरा कैसे होती है ? जरा - मरण कैसे होता है ? जाति कैसे होती है ? भव कैसे होता है ? तब भगवान् बुद्ध का उत्तर है कि ये सब प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं । मध्यम मार्ग का अवलंबन लेकर भगवान् बुद्ध समझाते हैं कि शरीर ही आत्मा है, ऐसा मानना एक अन्त है और शरीर से भिन्न आत्मा है, ऐसा मानना दूसरा अन्त है । किन्तु मैं इन दोनों अन्तों को छोड़कर मध्यम मार्ग से उपदेश देता हूँ कि अविद्या के होने से संस्कार, संस्कार के होने से विज्ञान, विज्ञान के होने से नाम-रूप, नाम रूप के होने से छह आयतन, छह आयतनों के होने से स्पर्श, स्पर्श के होने से वेदना, वेदना के होने से तृष्णा, तृष्णा के होने से उपादान, उपादान के होने से भव भव के होने से जाति-जन्म, जन्म के होने से जरा-मरण है । यही प्रतीत्यसमुत्पाद है" । दीघनिकाय महानिदानसुत्त १५. २७ मज्झिमनिकाय छक्ककसुत्त १४८. २ संयुत्तनिकाय XII. 35. अंगुत्तरनिकाय ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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