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________________ ४० आगम-युग का जैन-वर्शन नासदीय सूक्त का ऋषि जगत् के आदि कारणरूप उस परम गंभीर तत्त्व को जब न सत् कहना चाहता है और न असत्, तब यह नहीं समझना चाहिए कि वह ऋषि अज्ञानी या संशयवादी था, किन्तु इतना ही समझना चाहिए कि ऋषि के पास उस परम तत्त्व के प्रकाशन के लिए उपयुक्त शब्द न थे । शब्द की इतनी शक्ति नहीं है कि वह परम तत्त्व को संपूर्ण रूप में प्रकाशित कर सके । इसलिए ऋपि ने कह दिया कि उस समय न सत् था न असत् । शब्द-शक्ति की इस मर्यादा के स्वीकार में से ही स्याद्वाद का और अस्वीकार में से ही एकान्त वादों का जन्म होता है। विश्व के कारण की जिज्ञासा में से अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हुए, जिनका निर्देश उपनिषदों में हुआ है । जिसको सोचते-सोचते जो सूझ पड़ा, उसे उसने लोगों में कहना शुरू किया। इस प्रकार मतों का एक जाल बन गया। जैसे एक ही पहाड़ में से अनेक दिशाओं में नदियाँ बहती हैं, उसी प्रकार एक ही प्रश्न में से अनेक मतों की नदियाँ बहने लगीं । और ज्यों-ज्यों वह देश और काल में आगे बढ़ीं त्योंत्यों विस्तार बढ़ता गया। किन्तु वे नदियाँ जैसे एक ही समुद्र में जा मिलती हैं, उसी प्रकार सभी मतवादियों का समन्वय महासमुद्ररूप स्याद्वाद या अनेकान्तवाद में हो गया है। विश्व का मूल कारण क्या है ? वह सत् है या असत् ? सत् है तो पुरुष है या पुरुषतर-जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक ? इन प्रश्नों का उत्तर उपनिषदों के . ऋषियों ने अपनी-अपनी प्रतिभा के बल से दिया है। और इस विषय में नाना मतवादों की सृष्टि खड़ी कर दी है। ५ ऋग्वेद १०.१२६. _ "उवषाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः । __ न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः।" -सिद्धसेनद्वात्रिंशिका ४.१५. ७ Constructive Survey of Upanishads, p. 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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