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भगवान् महावीर से पूर्व की स्थितिः
वेद से उपनिषद् पर्यन्त-विश्व के स्वरूप के विषय में नाना प्रकार के प्रश्न और उन प्रश्नों का समाधान यह विविध प्रकार से प्राचीन काल से होता आया है। इस बात का साक्षी ऋग्वेद से लेकर उपनिषद् और बाद का समस्त दार्शनिक सूत्र और टीका-साहित्य है।
ऋग्वेद का दीर्घतमा ऋषि विश्व के मूल कारण और स्वरूप की खोज में लीन होकर प्रश्न करता है कि इस विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई है, इसे कौन जानता है ? है कोई ऐसा जो जानकार से पूछ कर इसका पता लगावे ? वह फिर कहता है कि मैं तो नहीं जानता किन्तु खोज में इधर-उधर विचरता हूँ तो वचन के द्वारा सत्य के दर्शन होते हैं । खोज करते दीर्घतमा ने अन्त में कह दिया कि - "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" । सत् तो एक ही है किन्तु विद्वान् उसका वर्णन कई प्रकार से करते हैं । अर्थात् एक ही तत्व के विषय में नाना प्रकार के वचन प्रयोग देखे जाते हैं।
दीर्घतमा के इस उद्गार में ही मनुष्य-स्वभाव की उस विशेषता का हमें स्पष्ट दर्शन होता है, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं। इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीय रूप जैनदर्शन-सम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है।
'ऋग्वेद १०.५,२७,८८,१२६ इत्यादि । तैत्तिरीयोपनिषद् ३.१. । श्वेता०१.१. २ ऋग्वेद १.१६४.४. 3 ऋग्वेद १.१६४.३७.
४ ग्वेद १.१६४.४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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